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________________ सन्देश -शुभकामना ३६ निर्मलकुमार बाबूलाल भंसाली बम्बई १८-१-८० आदरणीय श्रीमान केसरीमलजी सुराणा साहब का मैं अभिनन्दन किन शब्दों में करूं यह मेरी समझ से परे है । श्रीमान काका साहब ने अथक प्रयास कर राणावास की मरुभूमि को विद्याभूमि में परिणत कर दिया है। यह राणावास की विद्याभूमि आपके खून पसीने से सींची गई है जो अब फलद्रप हो रही है। प्राथमिक विद्यालय जो सिर्फ पाँच छात्रों से संवत् २००१ में शुरू हुआ था, प्राथमिक विद्यालय का यह बीजापन आज उच्च प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक एवं महाविद्यालय वटवृक्ष के रूप में राजस्थान की भूमि में स्थापित हो चुका है। अब तक आपने सम्पूर्ण देश का भ्रमण करते हुए जो ६० लाख रुपये चन्दे के रूप में एकत्रित किये हैं, यह आपके जीवन का एक अनूठा उदाहरण है। चन्दा प्राप्त करने की आपकी कला में शायद ही कोई मुकाबला कर सके। आपकी अमृतवाणी से कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है, आपका जीवन समाज-सेवा करते हुए भी एक पूर्ण साधु की तरह हैं । एक दिन रात में आप १७ सामायिक १७.३० घंटे मौन २.३० घण्टे रात्रि शयन, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन, रात्रि आहार-पानी का त्याग तथा सात्त्विक आहार करते हैं। हम आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए यह मंगल मामना करते हैं कि आप युग-युग तक जियें और आपके इंगित पर समाज उत्तरोत्तर प्रगति करता जाये। -निर्मलकुमार बाबूलाल भंसाली ४० तोलाराम दुगड़ अध्यक्ष, श्री जैन श्वे. ते० महासभा "दुगड़ निवास" मेन रोड, पो० बॉ० नं० ४०, विराटनगर (नेपाल) मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के सार्वजनिक अभिनन्दन की आयोजना के साथ, उसी उपलक्ष में एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित कर विमोचन करने जा रहे हैं। श्री सुराणाजी ऐसे न्यायमूर्ति, सामाजिक सेवक की यह अभ्यर्थना समीचीन है। उनके प्रति समाज की श्रद्धा की अभिव्यक्ति उनका व्यक्तिगत सम्मान ही नहीं, प्रत्युत समाज के आभार की प्रस्तुति के साथ स्वयं समाज को भी पुरस्कृत करता है और प्रेरणादायक प्रसंग बनता है । कर्मयोगी किसी कामना के साथ काम नहीं करता, उसको न तो फल की प्रत्याशा रहती है, न पुरस्कार का प्रलोभन । वह तो कर्मोद्यत होता है अपनी सहज स्वाभाविक मानसिक प्रवृत्ति की प्रेरणा पर किन्तु यह प्रवृत्ति साधना की बुनियाद पर ही बनती है जब मनुष्य अपने स्वभाव को त्याग कर देता है। सामायिक तो स्वधर्मानुयायी सभी करते हैं किन्तु इसकी गहराई तक कितने पहुँच पाये हैं। जो पहुँचे पाते हैं वही तपः पूत होते हैं। क्योंकि कहा गया है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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