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________________ छात्रों में संस्कार-निर्माण : घर, समाज व शिक्षक की भूमिका ६३ . ...................................................... .... सम्प्रदाय के हितों की रक्षा करना है। आर्यसमाज द्वारा गुरुकुल पद्धति से चलने वाले विद्यालय आशा की किरण के रूप में अवश्य प्रस्फुटित होते हैं, किन्तु इनकी अपनी सीमाएँ हैं, फिर सरकार की ओर से प्रोत्साहन देने की कोई व्यवस्था नहीं है । ऐसी स्थिति में बालकों में संस्कार पैदा करने के लिए फिर वही तीन साधन रह जाते हैं---.घर, समाज और विद्यालय । इन तीनों के संयुक्त प्रयास के द्वारा ही संस्कारवान और सच्चरित्र बालक तैयार किये जा सकते हैं। इस तरह तैयार हुए बालक ही एक समृद्ध, खुशहाल और शान्तिमय भारत का निर्माण कर सकते हैं, लेकिन इसके साथ ही अगला प्रश्न पैदा होता है कि ये तीनों बालकों में संस्कारों का सर्जन कैसे करें, इसके लिये निम्न सुझाव उपयोगी हो सकते हैं माता-पिता का दायित्व घर से ही बालकों में अच्छे संस्कार पैदा करने के लिए माता-पिता व अभिभावकों को चाहिए कि वे पहले स्वयं अपने जीवन को सुसंस्कारी बनाए, सदाचारी एवं प्रामाणिक बनाएँ ताकि उनके जीवन का प्रभाव बच्चों के मन और मस्तिष्क पर पड़ सके । माता-पिता या अभिभावकों को चाहिये कि उनका गलक दिन भर किस प्रकार के बालकों के साथ रहता है ? इसके मित्र कौन है ? उनका स्तर कैसा है ? उनमें संस्कार कैसे हैं और उनके माता-पिता की क्या स्थिति है, इस प्रकार का ध्यान रखकर ही बालकों को अपने मित्र बनाने में सहयोग दें । गलत मित्रों को हतोत्साहित करना चाहिये। क्योंकि गलत मित्र बालकों का बड़ा अहित कर बैठते हैं। बालक जब स्कूल में जाने लायक हो जाय तब विद्यालय के चयन का भी पूरा ध्यान रखना चाहिये कि विद्यालय में अध्यापक कैसे हैं? परीक्षा परिणाम कैसा रहता है ? और उस विद्यालय से निकले हुए छात्रों का भविष्य कैसा है ? इस तरह का ध्यान रखकर ही विद्यालय का चयन करना चाहिये । माता-पिता को यह भी ध्यान रखना चाहिये कि उनके बालक नौकरों के भरोसे नहीं रहे, अगर रखना मजबूरी बन जाती है तो नौकरों का चयन उपयुक्त हो तथा समय-समय पर उनकी गतिविधियों • व मेलजोल के बारे में भी ध्यान रखना चाहिये। घर पर जब बालकों का फालतू समय हो, उस समय उन्हें महापुरुषों की जीवनियां पढ़ने को देनी चाहिये, सत्साहित्य लाकर देना चाहिये, धार्मिक व आध्यात्मिक रुझान पैदा करना चाहिये । छात्र अश्लील साहित्य न पड़ें, उनमें सिनेमा की लत न पड़े इस ओर भी ध्यान रखना चाहिये । अगर ऐसी स्थिति पैदा हो जाय कि बालक को परिवार से दूर किसी छात्रावास में ही रखना है तो उन्हें अच्छे छात्रावासों का चयन करना चाहिये। समाज का सान्निध्य कोई भी व्यक्ति समाज से कटकर अधिक समय तक जिंदा नहीं रह सकता। समाज ही व्यक्ति का जीवित परिवेश है । इसलिए समाज का सान्निध्य भी बालकों को बराबर मिलता रहे और हर बालक अपने समाज का स्मरण कर गौरवान्वित हो, इस प्रकार की स्थिति आवश्यक है। अत: समाज को चाहिये कि वह प्रतिभावान, सदाचारी, परोपकारी बालकों का सम्मान करे, उन्हें प्रमाण-पत्र देकर प्रोत्साहित करे। समाज प्राचीन गुरुकुल पद्धति के विद्यालय एवं आश्रम खोले तथा वहाँ संस्कारित वातावरण बनाये । समाज कभी भी भ्रष्ट, दुराचारी, तस्कर, जमाखोर, मिलावट करने वाले व्यक्तियों को प्रोत्साहित नहीं दे, आवश्यकता पड़ने पर ऐसे लोगों की भर्त्सना करें । समाज अपने अन्दर व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करे। व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, मादक द्रव्यों का सेवन, जुआ, मांस, शिकार आदि को हतोत्साहित करे, ऐसी बातों में लिप्त लोगों के प्रति घृणा के भाव जगाए और उन्हें भी सही रास्ते पर लाने का प्रयास करे। __शिक्षक की भूमिका माता-पिता व समाज के बाद बालकों में अच्छे संस्कार पैदा करने के लिये शिक्षक की भूमिका बड़ो महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि विद्यालय में शिक्षक ही छात्र का अभिभावक व द्रष्टा होता है । इसके लिए यह आवश्यक है. कि सबसे पहले शिक्षक अपने जीवन को संस्कारवान, सच्चरित्र और सदाचारी बनाए । वह व्यसनमुक्त हो, प्रेरणादायी हो तथा खुली किताब के रूप में हो ताकि अपने गुरु को देखकर छात्र के दिल में उसके प्रति स्नेह, श्रद्धा व आदर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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