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________________ माध्यमिक शिक्षा और सरकारी दृष्टि ____7 श्रीमती सुषमा अरोड़ा (शोध सहायक, साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर) बुद्धि एक ऐसा तत्त्व है जिसके कारण मनुष्य को अन्य सब प्राणियों से श्रेष्ठतम समझा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ अन्तनिहित क्षमताएँ होती हैं, आवश्यकता है उन अन्तनिहित क्षमताओं को जागृत कर व्यक्ति को उनसे परिचित कराने की, ताकि वह उन क्षमताओं का उचित उपयोग कर प्रगति की ओर अग्रसर हो सके। राष्ट्र शब्द हमें किसी देश-विशेष की भौगोलिक स्थिति, पर्वत, नदियाँ, मैदान अथवा उसके मानचित्र और भूखण्ड-विशेष का ही अवबोध नहीं कराता, वरन् राष्ट्र शब्द वास्तव में किसी देश-विशेष के निवासियों (नागरिकों) एवं उनकी चेतना का अवबोधक है। किसी देश-विशेष की संस्कृति, सभ्यता, रहन-सहन, खानपान आदि वहाँ के नागरिकों के जीवन से आवश्यक रूप से जुड़े रहते हैं। प्रत्येक राष्ट्र की बुनियाद वहाँ के नागरिकों के चरित्र पर निर्भर करती है, क्योंकि व्यक्ति-चरित्र से समूह-चरित्र व राष्ट्र-चरित्र का निर्माण होता है। व्यक्ति-चरित्र के अभाव में राष्ट्र की प्रगति की कामना करना भी दुष्कर है। व्यक्ति-चरित्र के निर्माण का कार्य शिक्षा द्वारा किया जाता है। राजस्थान के राज्यपाल रघकुलतिलक के शब्दों में "लोकतन्त्र किसी भी देश में तभी टिक सकता है, जब वहाँ के नागरिक उसका अर्थ समझते हों।" और अर्थ समझाने का यह कार्य शिक्षा द्वारा ही संभव है। उनका विचार है कि-"हममें बुद्धि, शक्ति या साधनों की कमी नहीं हैं, शिक्षा व प्रशिक्षण की कमी है।"१ सन्त सुकरात के मतानुसार शिक्षा का तात्पर्य संसार के सर्वमान्य विचारों को, जो प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में स्वभावत: निहित होते हैं, प्रकाश में लाना है। एडीसन का कथन है कि जब शिक्षा मानव-मतिष्क पर कार्य करती है तो वह उसके सद्गुणों और पूर्णता को बाहर लाकर व्यक्त कर देती है । फोयबेल का विचार है कि शिक्षा एक प्रक्रिया है जो कि बालकों की अन्त:शक्तियों को बाहर प्रकट करती है। महात्मा गांधी कहते हैं कि शिक्षा से अभिप्राय बालक एवं मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में निहित सर्वोत्तम शक्तियों के प्रकटीकरण से है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की मान्यता है कि शिक्षा का अर्थ मस्तिष्क को इस योग्य बनाना है कि वह सत्य की खोज कर सके और उस तथ्य को अपना बनाते हुए उसको व्यक्त कर सके । प्रो० होर्नी की धारणा है कि शिक्षा शारीरिक एवं मानसिक रूप से विकसित सचेतन मानव के अपने बौद्धिक, उद्घ गात्मक और इच्छात्मक वातावरण से सर्वथा अनुकूलन है। बेसिंग का मत है कि शिक्षा का कार्य व्यक्ति को वातावरण में इस सीमा तक व्यवस्थापित करना है, जिससे व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिए महान् सन्तोषजक लाभ प्राप्त हो सके । प्रो० जेम्स के कथनानुसार शिक्षा कार्य-सम्बन्धित अजित आदतों का संगठन है जो व्यक्ति को उसके सामाजिक एवं भौतिक वातावरण के योग्य बनाती है। इसी प्रकार बटलर की धारणा है कि शिक्षा १. शिविरा--दिसम्बर, १९७७, पृ० २६८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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