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________________ निर्वाण-स्थली-सिरियारी १६३ Share VARAN STA सिरियारी का मार्ग वर्तमान में सिरियारी रेल तथा सड़क से दूर है। सिरियारी जाने के लिए रेल द्वारा मारवाड़ जंकशन से कामलीघाट जाने वाली रेलवे लाइन पर स्थित राणावास स्टेशन पर उतरकर पांच मील जाना होता है। राणावास से सिरियारी को कई बसें प्रतिदिन आती-जाती हैं। रास्ता कच्चा है। सोजतरोड से जोजावर जाने वाली मोटर सड़क भी है । इस तरह फुलाद, जोजावर आदि स्थानों पर जाने के लिये बस का साधन उपलब्ध है। सोजतरोड से सिरियारी १५ मील दूर है। स्वामीजी की जन्मभूमि कंटालिया सिरियारी के करीब ७ मील दूर उत्तर की और आया हुआ है। सकलेचों के कुलगुरुओं की एक शाखा जो कि स्वामीजी के वंश के कुलगुरु हैं, यही सिरियारी में रहते थे । वर्तमान में इनका एक घर अब भी मौजूद है । S BOB सिरियारी और तेरापंथ सिरियारी के साथ तेरापंथ का गहरा सम्बन्ध रहा है। आचार्य भिक्ष ने अपने तैयालीस चातुर्मासों में से सात चातुर्मास सिरियारी में किये और शेष काल में समय-समय पर पधार कर यहाँ के जन-मानस को पावन किया । स्वामीजी के चरम महोत्सव का श्रेय भी इसी नगरी को प्राप्त हुआ। उस समय यहाँ ६८१ परिवार ओसवालों के थे जिनमें से ७८१ परिवार आचार्यश्री भिक्ष की मान्यताओं में दृढ़ आस्था रखने वाले परिवार थे, ऐसी मान्यता है । स्वामीजी के सात चातुर्मास वि० सं० १८१६, १८२२, १८२६, १८३६, १८४२, १८५१ और १८६० में हुए। दस वर्ष से कम समय में यहाँ चातुर्मास होते गये जिससे इनकी मान्यता कितनी प्रबल थी, इस बात का पता चलता है । नगर के प्रमुख बाजार में हाटों के रूप में दुकानें थीं। उन्हीं हाटों की मेडी पर चातुर्मास होते थे। अब तो कई भवन निर्मित हो चुके हैं मगर अब भी अवशेष मौजूद हैं। स्वामीजी ने भीषण गर्मी में भी श्रमण संघ के साथ हवा रहित हाटों में धर्म-जागरण की रातें काटी। आज उस स्थल पर तेरापंथ समाज का भव्य भवन बना हुआ है, जहाँ औषधालय चलता है और जनता की सेवा का पूर्ण लाभ प्राप्त हो रहा है। यह लाभ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा एवं श्री बस्तीमलजी छाजेड़ के अथक परिश्रम द्वारा प्राप्त हो रहा है। आचार्यश्री भिक्षु का चरम या अन्तिम चातुर्मास वि० सं० १८६० में यहीं पर हुआ था, उस समय उनकी अवस्था ७७ वर्ष की थी। वृद्धावस्था होते हुए भी स्वामीजी आसन पर विराजकर तीनों समय उपदेशामृत से जनता का कल्याण करते रहे । किन्तु श्रावण महिने के पश्चात् स्वामीजी को साधारण दस्तों की बीमारी हो गई । उपचार से भी दस्त ठीक नहीं हुए । भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को अचानक स्वामीजी को आभास होने लगा कि अब उनका आयुष्य निकट है । शरीर ढीला पड़ गया था । भाद्रपद शुक्ला पंचमी को संवत्सरी का उपवास किया। षष्ठी को स्वल्प आहार लिया। नवमी के दिन स्वामीजी ने आजीवन अनशन का विचार किया, किन्तु खेतसीजी स्वामी के अत्यन्त आग्रह करने पर उनके हाथ से स्वामीजी ने कुछ आहार लिया, दशमी के दिन फिर अनशन का विचार प्रकट किया किन्तु भारीमलजी स्वामी ने उस दिन भी अपने हाथ से कुछ आहार ग्रहण करने का निवेदन किया किन्तु एकादशी के दिन स्वामीजी ने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि अब आहार लेने का उनका कोई इरादा नहीं है। दस्तों की बीमारी थी अतः आवश्यक दवा-पानी लेने के अलावा आहार का त्याग कर दिया। द्वादशी के दिन जल के अतिरिक्त तीनों आहार का त्याग कर दिया । मध्यान्ह काल में स्वामीजी कच्ची हाट से स्वयं चलकर पक्की हाट में आये। शिष्यों ने बिछौना कर दिया, उस पर विश्राम करने लगे । कुछ समय बाद भारीमलजी व खेतसीजी को बुलाकर अनशन पचख ही लिया । द्वादशी की रात्रि व्यतीत हुई। त्रयोदशी का दिन आया। यह दिन भो कोई डेढ़ प्रहर ही शेष था कि वि० सं० १८६० भाद्रपद शुक्ला १३ मंगलवार को स्वामीजी ने महाप्रयाण कर लिया। स्वामीजी का पार्थिव शरीर सोजत द्वार से होकर गांव के बाहर सिरियारी नदी के तट से होकर पूर्व दिशा की पहाड़ की तराई में १०० फुट पूर्व की ओर पहाड़ की ढाल में उस महामानव की चिता रची गई। अब उस स्थल पर 'x' का चबूतरा बनाया गया है । यह निर्वाण-स्थली का स्मारक अब तेरापंथ का तीर्थ बन चुका है। ASRAA SSC Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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