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________________ राजस्थान की जन कला -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. सूरि की चित्र वाली एक पट्टिका प्राप्त है और जिनदत्त सूरि की तो अन्य दो-तीन पट्टिकाएँ और भी प्राप्त हैं जिनमें से एक त्रिभुवन गिरि वाले राजा कुमारपाल का भी आचार्य श्री की भक्ति करते हुए चित्र अंकित है। यह पट्टिका जैसलमेर के थाहरू सार भंडार में रखी हुई है। जिनदत्त सूरि का दूसरी एक पट्टिका का चित्र मुनि जिनविजयजी ने प्रकाशित किया था। उसी से लेकर हमने अपने युग प्रधान जिनदत्त सूरि पुस्तक में छपवाया था। श्री जिनदत्तमूरि के चित्रवाली पट्टिकाओं का वर्णन मेरे भ्रातृपुत्र भंवरलाल ने मणिधारी जिनचन्द्र सरि अष्टम शताब्दी ग्रंथ में प्रकाशित कर दिया है। चार पट्टिकाओं के चित्र भी इस ग्रंथ में छपवा दिये गये हैं। १२वीं शताब्दी की ही एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पट्टिका वादिदेवसूरि की जैसलमेर भण्डार में थी जिसे मुनि जिनविजय जी ले आये। पहले तो मैंने उस पट्टिका को भारतीय विद्याभवन बम्बई में देखी थी, उसके बाद कलकत्ता में चुन्नीलालजी नवलखा के पास देखी। इस कलापूर्ण चित्र पट्टिका के रंगीन श्लोक भारतीय विद्याभवन से छपे थे । वास्तव में इसके चित्र बहुत ही भव्य एवं आकर्षक हैं । ताडपत्रीय सचित्र प्रतियाँ भी जैसलमेर भण्डार में कई हैं। चित्रित ताड़पत्र और भी कई देखने को मिले जिनमें से 'कल्पसूत्र' का एक पत्रीय चित्र हमारे कलाभवन में भी हैं। एक चित्र हरिसागर सूरि ज्ञान भण्डार में भी देखा था, इसी भण्डार में एक सचित्र काष्ठपट्टिका भी सुरक्षित है। कागज की प्रतियाँ भी सबसे पुरानी जैसलमेर में ही मिलती हैं जिनमें से १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ की 'ध्वन्यालोक लोचन' का ब्लाक मुनि जिनविजय जी ने प्रकाशित करवाया था। उसकी प्रशस्ति तो हमने अपने मणिधारी जिनचन्द्र मूरिग्रंथ में प्रकाशित की थी। यह प्रति मुनि जिनविजय जैसलमेर से लाये थे। अभी राजस्थान विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर में प्रदशित है। कागज की सचित्र प्रतियाँ १८वीं शताब्दी से अधिक मिलने लगती हैं। ऐसी प्रतियों में मेवाड़ चित्रित 'सुपासनाहचरिय' की प्रति विशेष अप से उल्लेखनीय है, क्योंकि उसमें काफी चित्र हैं और प्रशस्ति में संवत् व स्थान दोनों का स्पष्ट उल्लेख है। १५वीं शताब्दी की ही एक और सचित्र पाण्डव चरित्र की प्रति हमें जोधपुर केशरियानाथ भण्डार में देखने को मिली जिसका सचित्र परिचय हम प्रकाशित कर चुके हैं। इसी शताब्दी के लिखे कई कल्पसूत्र देखने में आये जिसकी एक प्रति हमारे संग्रह में भी है । १६वीं शताब्दी में कल्पसूत्र और कालिकाचार्य कथा की सैकड़ों सचित्र और स्वर्णाक्षरी तथा विशिष्ट बोर्डर वाली प्रतियाँ पाई जाती हैं। राजस्थान के दिगम्बर शास्त्र भण्डारों में १५वीं शताब्दी का सचित्र आदिपुराण प्राप्त हुआ है। इसके बाद तो जैन ग्रन्थों की सचित्र प्रतियाँ खूब तैयार हुई। अपभ्रंश चित्रकला के सर्वाधिक उपादान जैन सचित्र ग्रन्थ पट्टिकाओं में ही सुरक्षित है। पहले हलदिया रंग का अधिक प्रचार था। वह रंग इतना पक्का और अच्छा बनता था कि सात सौ आठ सौ वर्ष पहले की पट्टिकाएँ आज भी ताजी नजर आती हैं। इसके बाद लाल, हरे रंग, सुनहरी, स्याही का चित्र बनाने में अधिक उपयोग किया जाने लगा, इससे चित्रों की सुन्दरता बढ़ गई और आकृतियों की बारीकी भी बढ़ गई। वैसे तो अपभ्रंश चित्रकला का प्रभाव १७वीं शताब्दी की प्रतियों में भी पाया जाता है पर वह केवल अनुकरण मात्र-सा है। १७वीं शताब्दी से जैन चित्रकला ने एक नया मोड़ लिया। सम्राट अकबर से जैनाचार्यों और मुनियों का सम्पर्क बढ़ा, वह जहाँगीर और शाहजहाँ तक चला। इसलिये मुगल चित्रकला में भी जैन ग्रंथ विज्ञप्ति-पत्र आदि चित्रित किये जाने लगे। सचित्र विज्ञप्ति पत्रों की परम्परा विजयसेनसूरि वाले पत्र से शुरू होती है। इसी तरह शालिभद्र चौपाई भी चित्रित की गई। १७वीं शताब्दी से ही संग्रहकला आदि जैन भौगोलिक ग्रन्थों के सचित्र संस्करण तैयार होने लगे। इससे जैन चित्रकला का एक नया मोड़ प्रारम्भ हुआ, जिसमें केवल व्यक्ति चित्र ही नहीं, भौगोलिक चित्र भी बनाये जाने लगे। यहाँ १५वीं से १७वीं शताब्दी के सचित्र वस्त्र पट्टों का भी उल्लेख कर देना आवश्यक है। वस्त्र पर लिखे हुए ग्रन्थ १४वीं शताब्दी से मिलने प्रारम्भ होते हैं पर सचित्र वस्त्र पट्ट १५वीं शताब्दी से ही मिलने लगते हैं। सबसे प्राचीन सचित्र वस्त्र पट्ट भी हमारे श्री शंकरदान नाहटा कलाभवन में ही है। यह पार्श्वनाथ यंत्र तंत्र वाला पट्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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