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________________ ·0 Jain Education International १६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड SIC प्रतिमाएँ मिली हैं, वे भी महत्त्वपूर्ण हैं । उनमें से एक के ऊपर ११वीं शताब्दी का लेख भी खुदा हुआ है। इन प्रति-माओं का विवरण जैन सिद्धान्त भास्कर १६७४ के अंक में मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी के लेख में प्रकाशित हो चुका है । जैन मन्दिरों और मूर्तियों की कला के सम्बन्ध में प्रस्तुत लेख में थोड़ा-सा संकेत कर दिया है। आबू और राणकपुर आदि के मन्दिर तो विश्वविख्यात हैं पर इस शैली और कोरनी वाले जैन मन्दिर भी कई हैं। जैसलमेर के जैन मन्दिर भी स्थानीय पीले पाषाण के सुन्दर हैं तथा कारीगरी व कोरनी के प्रतीक हैं । कई मन्दिरों में द्वार तो बहुत ही कलापूर्ण है तथा कइयों के खम्भे, छतें बारीक, कोरणी और सुन्दर के उत्कृष्ट नमूने हैं । मुसलमानों के आक्रमण से बहुत से प्राचीन व कलापूर्ण मन्दिर और मूर्तियों का भयंकर विनाश होने पर भी जैन संघ की महान भक्ति, कलाप्रियता के कारण बहुत से मन्दिर व मूर्तियाँ सुरक्षित रह सकीं व समय-समय पर जीर्णोद्वार होता रहा है। इसीलिए हिन्दू मन्दिर और मूदियों की अपेक्षा ों की संख्या कम होने पर भी जैन मन्दिर और मूर्तियाँ अधिक सुरक्षित रह सकी हैं। इनके द्वारा हम केवल प्राचीन कला की ही जानकारी नहीं पाते पर साथ ही समय-समय पर जनता की लोकप्रियता में जो नये-नये मोड़ आये, उनकी भी अच्छी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । कई जैन मन्दिरों में काँच का काम व कइयों में चित्रकला आदि अनेक तरह के कलाप्रेम का दिग्दर्शन मिल जाता है। अब हम चित्रकला के विकास व संरक्षण में जो राजस्थान के जैन समाज का बहुत बड़ा योग रहा है उसका संक्षिप्त परिचय देने जा रहे हैं । भारतीय चित्रकला के प्राचीन नमूने गुफाओं आदि में मिलते हैं। राजस्थान में ऐसी प्राचीन गुफाएँ, जिनमें सुन्दर चित्र अंकित हों, नहीं पायी जातीं । इसलिए हम राजस्थान की जैन चित्रकला का प्रारम्भ काष्ठपट्टिकाओं और ताड़पत्रीय प्रतियों से करते हैं, जो सर्वाधिक जेसलमेर के जनभरि ज्ञान भण्डार में सुरक्षित हैं। सचित्र काष्टकाओं सम्बन्धी एक ग्रन्थ 'जैसलमेर नी चित्र समृद्धि' साराभाई नवाब अहमदाबाद ने प्रकाशित किया है। राजस्थान की ललित कला अकादमी 'जैसलमेर में सुरक्षित चित्रकला की सामग्री' सीपैक से पट्टिकाएँ व ताड़पत्रीय प्रतियां जैसलमेर के बड़ा ग्रंथ भण्डार की पत्रिका 'आकृति' अप्रेस ७५ के अंक में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ है। वास्तव में सबसे प्राचीन सचित्र की अमूल्य निधि हैं। 1 जैन चित्रकला के प्राप्त उपादानों में १२वीं शताब्दी' से काष्ठपट्टिकाओं वाले चित्र बहुत उल्लेखनीय हैं । यद्यपि कई चित्र काठमाकाऍ इससे पहले की भी हो सकती हैं पर जिनका समय निश्चित है उनके सम्बन्ध में मैंने चर्चा की है। संवत् १६६६ में जब मैं प्रथम बार जैसलमेर के भण्डारों को देखने गया तो मैंने एक लकड़ी की पेटी में बहुत-सी टूटी हुई ताड़पत्रीय प्रतियों के टुकड़े देखे जिनकी लिपि वी से १०वीं शताब्दी तक की थी पर दूसरी बार जाने पर वे सब टुकड़े गायब हो गये। कुछ तो कई व्यक्ति उठाकर ले गये और कुछ कचरा समझ कर फेंक दिये गये। आज जैसलमेर की प्राचीनतम ताम्रपत्रीय प्रति विशेषावश्यक महाभाष्य' की एकमात्र बच पाई है जो की दसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की मानी गई है। ऐसी और इससे पहले की कई प्रतियाँ वहाँ थीं। ताड़पत्रीय प्रतियों के दोनों और काष्ठ की पट्टिकाएं लगाई जाती हैं। इसलिए उन प्राचीन प्रतियों के साथ वाली कुछ सचित्र पट्टिकाएं भी होंगी, उनमें से कुछ ही पट्टिकाएँ आज भी बच पाई हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ सचित्र काष्ठ फलक प्राप्त हैं, उनमें से शायद सबसे प्राचीन हमारे संग्रह में है जिसमें सोमचन्द्र आदि का नाम उनके चित्र के साथ लिखा हुआ है। जिनदत्त सूरि का दीक्षा नाम सोमचन्द्र था और उन्हीं का इस पट्टिका में चित्र है इसलिए यह पट्टिका निश्चित रूप से सम्वत् १९६६ के पहले की है क्योंकि ११६९ में सोमचन्द्र को चित्तौड़ में आचार्य पद देकर जिनदत्त सूरि नाम घोषित कर दिया गया था। इनके गुरु महान विद्वान जिनवल्लभ १. इस लेख में शताब्दियों का उल्लेख विक्रम की शताब्दी के अनुसार किया गया है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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