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________________ जैन कला : विकास और परम्परा १५७ .......................................................................... भारतीय इतिहास में स्वर्ण-काल के नाम से अभिहित गुप्तकाल में कला प्रौढ़ता को प्राप्त हो चुकी थी। इस युग में भी हमें तीर्थंकरों के सामान्य लक्षण मूर्तियों में वे ही प्राप्त होते हैं जो कुषाणकाल में विकसित हो चुके थे, किन्तु उनके परिकरों में कुछ वैशिष्ट्य दृष्टिगोचर होता है । प्रतिमाओं का उष्णीष कुछ अधिक सौन्दर्य व घुघरालेपन को लिए हुए पाया जाता है। प्रभावलि में विशेष सजावट दिखाई देती है। धर्मचक्र व उसके उपासकों का चित्रण होते हुए भी कहीं-कहीं उसके पावों में मृग भी उत्कीर्ण दिखाई देते हैं । अधोवस्त्र तथा श्रीवत्स-ये विशेषताएँ इस युग में परिलक्षित होती हैं । गुप्तयुगीन जैन प्रतिमाओं में यक्ष-यक्षिणी, मालावाही गन्धर्व आदि देवतुल्य मूर्तियों को भी स्थान दिया गया था। प्राचीन भारत के प्रमुख नगर विदिशा के निकट दुर्जनपुर ग्राम से रामगुप्तकालीन' तीन अभिलेखयुक्त जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें से दो प्रतिमायें चन्द्रप्रभ एवं एक अर्हत पुष्पदन्त की है। इन प्रतिमाओं की प्राप्ति से भारतीय इतिहास में अर्द्धशती से चले आ रहे इस विवाद का निराकरण संभव हो सका कि रामगुप्त, गुप्त शासक था या नहीं । बक्सर के निकट चौसा (बिहार) से उपलब्ध कुछ कांस्य प्रतिमायें पटना संग्रहालय में हैं । रामगिरि की वैभार पहाड़ी की वह नेमिनाथ मूर्ति भी ध्यान देने योग्य है जिसमें सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र को पीठ पर धारण किए हुए एक पुरुष और उसके दोनों पाश्वों में शंखों की आकृतियाँ पायी जाती हैं । इस मूर्ति पर के खण्डित लेख में चन्द्र गुप्त का नाम पाया जाता है, जो लिपि के आधार पर चन्द्रगुप्त द्वितीय का वाची अनुमान किया जाता है । कुमारगुप्त प्रथम के काल में गुप्त संवत् १०६ में निर्मित विदिशा के निकट उदयगिरि की गुफा में उत्कीर्ण पार्श्वनाथ की प्रतिमा का नागफण अपने भयंकर दाँतों से बड़ा प्रभावशाली और अपने देव की रक्षा के लिए तत्पर दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश के कहाऊँ नामक स्थान से प्राप्त गुप्त संवत् १४१ के लेख सहित स्तम्भ पर पार्श्वनाथ तथा अन्य चार तीर्थंकरों की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं । इस काल की अन्य प्रतिमायें बेसनगर, बूढ़ी चंदेरी, देवगढ़, सारनाथ आदि से उपलब्ध हुई हैं। सारनाथ से प्राप्त अजितनाथ की प्रतिमा को डॉ० साहनी ने गुप्त संवत् ६१ की माना है, जो यहाँ काशी संग्रहालय में है। सीरा पहाड़ की जैन गुफा में तथा उसमें उत्कीर्ण मनोहर तीर्थकर प्रतिमाओं का निर्माण उसी काल में हुआ। वर्धमान महावीर को दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व जीवन्तस्वामी के नाम से जाना जाता था। जीवन्त-स्वामी की इस काल की दो प्रतिमायें बड़ौदा संग्रहालय में हैं। छठी सदी के तृतीय चरण में पांडुवंशियों ने शरभपुरीय राजवंश को समाप्त कर दक्षिण कौशल को अपने आधिपत्य में कर श्रीपुर (सिरपुर-रायपुर जिला, म० प्र०) को अपनी राजधानी बनाया। इस काल की एक प्रतिमा सिरपुर से उपलब्ध हुई है, जो तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है। उत्तर गुप्तकाल में कला के अनेक केन्द्र थे। कला तान्त्रिक भावना से ओत-प्रोत थी। इस काल की एक प्रमुख विशेषता है-कला में चौबीस तीर्थंकरों की यक्ष-यक्षिणी को स्थान प्रदान किया जाना। मध्यकाल में जैन प्रतिमाओं में चौकी पर आठ ग्रहों की आकृति का अंकन है, जो हिन्दुओं के नवग्रहों का ही अनुकरण है। मध्यकाल में मध्यप्रदेश में जैन धर्म की प्रतिमायें बहुलता से उपलब्ध होती हैं । मध्यप्रदेश में यशस्वी राजवंश कलचरि, चन्देल एवं परमार नरेशों के काल में यह धर्म भी इस भूभाग में पुष्पित एवं पल्लवित हुआ। भारतीय जैन कला में मध्यप्रदेश का योगदान महत्वपूर्ण है। अखिल भारतीय परम्पराओं के साथ-साथ मध्यप्रदेश की अपनी विशेषताओं को भी यहाँ की कला ने उचित स्थान दिया। कलचुरिकालीन तीर्थंकरों की प्रतिमायें आसन एवं स्थानक मुद्रा में प्राप्त हुई हैं। कुछ संयुक्त प्रतिमायें भी १. विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत, मई, १६७४, विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त की ऐतिहासिकता, शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अप्रेल, १९७४. २. अकोटा ब्रोन्ज, यू० पी० शाह, पृ० २६-२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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