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________________ मेवाड़ के जैन बीर १४१ .. .............................................................. ... . . . बाद जब महाराणा जयसिंह गद्दी पर बैठा तब चित्तौड़ से मुगलों की शक्ति को नष्ट करने के लिए सिंधवी दयालदास ने शहजादा आजम और सेनापति दिलावर खाँ की सेना पर भीषण आक्रमण किया। यद्यपि इस युद्ध में दयालदास को तात्कालिक सफलता नहीं मिली किन्तु इस युद्ध के पश्चात् चित्तौड़ में मुगल शक्ति के पाँव फिर कभी नहीं जम पाये और अन्तत: चित्तौड़, मेवाड़ राज्य की गौरवशाली प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी के रूप में मेवाड़ राज्य का अभिन्न अंग बन गया। अपने जीवन के सारे उत्कर्ष एवं उद्देश्यों की पूर्ति व प्राप्ति के बाद सिंघवी दयालदास ने स्वेच्छा से अपने को राजकाज से मुक्त कर दिया और धर्म की शरण में अपने पराजीवन का उद्धार करने में लग गये । दयालदास के पास जो कुछ धन-सम्पत्ति थी वह उन्होंने अपने पास नहीं रखी और उससे अपने स्वामी महाराणा राजसिंह की स्मृति में कांकरोली के पास राजसंद नामक विशाल झील का निर्माण किया और झील के पास ही पहाड़ी पर एक विशाल जैन मन्दिर का निर्माण करवाया। राजसंद झील आज भी आस-पास के पचासों गांवों के सिचाई एवं पेयजल का मुख्य स्रोत है और यह जैन मन्दिर अपने वीर निर्माता दयालदास के नाम से प्रसिद्ध होकर उसकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाये हुए है। मेहता अगरचन्द-मेहता अगरचन्द जिस समय मेवाड़ राज्य की सेवा में उभर कर आया वह समय मेवाड़ राज्य का संक्रमण काल था। एक ओर मेवाड़ का राजपरिवार गृहकलह के संघर्ष में उलझा हुआ था तो दूसरी ओर मेवाड़ पर मराठों का दबाव निरन्तर बढ़ता जा रहा था। महाराणा अरिसिंह द्वितीय ने मेहता अगरचन्द को मांडलगढ़ जैसे मेवाड़ के सन्धिस्थल के सामरिक दुर्ग का किलेदार एवं राज्य कार्य का प्रशासक नियुक्त किया । इसके पश्चात् महाराणा ने मेहता अगरचन्द को अपना निजी सलाहकार और फिर मेवाड़ राज्य का दीवान नियुक्त किया। जब माधवराव सिन्धिया ने उज्जैन को घेरा तभी मेहता अगरचन्द ने महाराणा अरिसिंह को मराठों से वहीं युद्ध करने के लिये तैयार कर लिया और स्वयं युद्ध में बढ़-चढ़कर भाग लिया और वीरता का जौहर दिखाया। इस युद्ध में अगरचन्द काफी घायल हो गया । माधवराव ने अगरचन्द को कैद कर लिया पर वह माण्डलगढ़ के प्रशासनिक काल में अपने मित्र रहे रूपाहेली के सामन्त ठाकुर शिवसिंह द्वारा भेजे गये बावरियों की सहायता से माधवराव की आँखों में धूल झोंककर, मराठों की जेल से मुक्त होकर वापस सकुशल मेवाड़ आ गया । इसकी प्रतिक्रिया में जब माधवराव सिन्धिया ने अपनी मराठी सेना मे उदयपुर को घेरने का प्रयास किया तब भी मेहता अगरचन्द ने महाराणा के साथ युद्ध में भाग लिया। इसके पश्चात् मराठों ने जब टोपल मंगरी व गंगरार को घेरा तब भी मेहता अगरचन्द ने महाराणा के साथ युद्धों में भाग लेकर मराठों को मुंहतोड़ जवाब दिया। इसके बाद जब अम्बाजी इंगलिया के सेनापति गणेशपन्त ने मेवाड़ पर हमले किये तब उन सभी युद्धों में मेहता अगरचन्द ने वीरतापूर्वक भाग लेकर मराठों के विरुद्ध अपनी कठोर कार्यवाही जारी रही।। मेहता अगरचन्द को महाराणा अरिसिंह द्वितीय ने ही नहीं अपितु उसके उत्तराधिकारियों महाराणा हमीरसिंह द्वितीय एवं महाराणा भीमसिंह ने भी दीवान पद पर प्रतिष्ठित रखा और समय-समय पर उसकी योग्यता, कार्यकुशलता, दूरदर्शिता, राजनीति और कूटनीति तथा इन सबसे बढ़कर उसके सैनिक गुणों के लिए पुरस्कृत-अभिनन्दित कर उसे कई रुक्के प्रदान किये। मेहता मालदास--मेहता अगरचन्द की ही तरह उसका उत्तराधिकारी मेवाड़ का दीवान सोमचन्द गाँधी भी कठोर कार्यवाही द्वारा मेवाड़ को मराठों के आतंक से मुक्त करने का पक्षधर था। दुर्भाग्य से महाराणा भीमसिंह एक नितान्त सरल, सीधा और भोला महाराणा था और हिन्दू शक्तियों की आपसी लड़ाई-झगड़े से अपने आपको कमजोर करने की दुरभिसन्धि को वह अच्छी नहीं मातता था। मराठों ने भीमसिंह के इस स्वभाव का लाभ उठाने के लिए मेवाड़ पर अपना दबाव और बढ़ा दिया था। ऐसे समय दीवान सोमचन्द गाँधी को एक ऐसे वीर साथी की आवश्यकता थी जो अपने साहस और शौर्य से मेवाड़ को मराठों के आतंक से भयमुक्त कर सके । इस समय ड्योढ़ी वाले मेहता वंश के वीर योद्धा मेहता मालदास ने इस कार्य के लिए स्वयं को स्वेच्छा से प्रस्तुत किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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