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________________ आशीर्वचन ५१ .. .. .... .... ....... . -.-. -. -. व्यक्तित्व व कृतित्व की पूजा ] मुनि श्री सोहनलाल (लूणकरनसर) श्री केसरीमलजी सुराणा से मैं तीस वर्षों से परि- है। यह हर किसी व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। मैं चित हूँ। कोई भी व्यक्ति पूजा नहीं जाता है, उसका अपेक्षा करता हूँ, अन्य व्यक्ति भी श्री सुराणाजी के जीवन व्यक्तित्व एवं कृतित्व पूजा जाता है। सुराणाजी इसमें से प्रेरणा लेकर अपने आपको इस योग्य बनावें। इसमें खरे उतरे हैं । यह सुराणाजी का सम्मान नहीं है, उनके श्री संघ एवं धर्म की जय-विजय है। श्री सुराणाजी के त्याग एवं धर्म के प्रति श्रद्धा तथा सेवा की भावनाओं का जीवन की तस्वीर को स्पष्ट करने के लिए ये पंक्तियाँ सम्मान है। आप राणावास के शिक्षा केन्द्र का कार्यभार प्रस्तुत कर रहा हूंस्वार्थविहीन होकर सम्भाल रहे हैं। यह इस भौतिक आसमान की शोभा शून्य से नहीं सितारों से है, युग में कम बात नहीं है। सबसे बड़ी विशेषता यह रही देश की शोभा गद्दारों से नहीं वफादारों से है। है कि आपने स्वयं का चरित्र उज्ज्वल कोटि का बनाकर इन्सान को शोभा रंग और रूप से नहीं, उसके अनुरूप छात्रों का जीवन बनाने का प्रयास किया उसके ऊंचे चरित्र और सद्व्यवहारों से है ।। 00 पडिमाधारी श्रावक 0 साध्वी श्री यशोधरा 'जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा' कर्मशीलता और धर्म- में तो ऐसा उपसर्ग हुआ कि सौ से भी अधिक बार शौच शीलता का संगमस्थल है सुराणाजी का जीवन । कर्मक्षेत्र जाना पड़ा । पर जो भय की रात ही नहीं जन्मा, उसे भय में उतरे तो एक नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया। कैसे भयभीत करता? पौरुष में अपराजेय शक्ति जो है। अकेला व्यक्ति क्या कर सकता है ? इस नैराश्य भरे चिन्तन आखिर उसी को जीत अवश्यंभाविनी थी। प्रतिमा के को कड़ी चुनौती दी, श्री केसरीमलजी सुराणा ने मात्र अनन्तर आपने अपनी ड्रेस को नहीं बदला। साधु-सा वाणी से नहीं प्रत्युत कर्म से भी। वेष, रात्रि में उसी तरह की चर्या, सीमित साधनों से जिस प्रकार कर्मक्षेत्र में अगुआ बनकर आए, धर्मक्षेत्र जीवनयापन, प्रतिदिन उन्नीस सामायिक, सत्रह घण्टा में भी प्रथम श्रेणी में अपना नाम लिखाया है । श्रावक की मौन, पर्युषण में मौन और एकान्तवास, हजारों गाथाओं ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख शास्त्रों में पढ़ते आये हैं, का स्वाध्याय इत्यादि प्रक्रियाएँ उनके आध्यात्मिक जागरण पर इसकी क्रियान्वित करने वाले श्रावक विरल ही होते के प्रतीक हैं। हैं। ग्यारह प्रतिमाओं में ग्यारहवीं प्रतिमा है-श्रमणभूत 'जंति वीरा महाजणं' वीर महापथ के पथिक होते प्रतिमा । इस प्रतिमा में साधु-सा जीवन यापन करना हैं। महापंथ पर जिसके चरण गतिशील हैं, अप्रमत्तता होता है। कभी-कभी ऐसे भी उपसर्ग आते हैं कि साधारण की साधना जिसका जीवन लक्ष्य है, उस यायावर की मनुष्य को तो सुनते ही पसीना छूटने लगता है। प्रतिमाकाल सन्निकट भविष्य में ही मंजिल की दूरी कट जाए, इसी में केसरीमलजी को अनेक उपसर्गों से जूझना पड़ा। एक रात्रि शुभाशंसा के साथ .... १ प्रतिमा पल ही होने का स्वाध्याय -0. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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