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________________ बलिदान और शौर्य की विभूति भामाशाह पृथ्वी परगटा राण प्रताप । प्रतपइ दिन दिन अधिक प्रताप ॥ तस मन्त्रीसर बुद्धि निधान कावड़िया कुल तितक निधान ।। सामि धरमि धुरि भासाह । वयरी वंस विधुंसण राह ॥ विदुर वायस्क कृत 'भामा बावनी' में उल्लेख है कि भामाशाह श्वेताम्बर जैन की नमन गच्छ शाखा के मानने वाले थे । पृथ्वीराज के कुल में भारमल्ल उत्पन्न हुए, जिनसे कावड़िया शाखा निकली। भारमल्ल को जसवन्त, करुण, कलियाण, भामाशाह, ताराचन्द नामक पुत्र उत्पन्न हुए । नृमन गच्छ नागोरि आनि देपाल जिसा गुर । दया धाम दाखिये, देव चवीस तिथंकर । पिरिया यहि पृधिराज, सांड भारमल्ल सुनिने । जसवन्त बांधव जोड़, करण कलीयाण कहिज्जई ॥ ताराचन्द लखमण राम जिन, घित धो भण जोड़ी धयो । कुल तिलक अभंग कावेडिया, भामो उजवालयग भयो ॥ १ ॥ साब भारमल्ल, मूल पेड़ काबेडियां सोहाइ पुत्र पौत्र परिवार, मउरि मूंझण दति मोहइ ॥२॥ जैन कवि दौलतराम विजयं ( दलपत ) कृत खुमाणरासो राजस्थानी ग्रन्थ में निम्न उल्लेख मिलता है साह बसें मेवाड़ घर काबेट्यो कुल मांण । भामो भारमल तो रोग तणो परधान || ३॥ * *** +0+0+0+0+0+0 प्राप्त जानकारी के अनुसार भामाशाह के पूर्वज अलवर क्षेत्र में रहते थे । इतिहासप्रसिद्ध मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह के काल तक भामाशाह के पूर्वज मेवाड़ क्षेत्र में आ बसे थे। वि०सं० १६१६ में उनके पिता भारमल चित्तौड़ में मौजूद थे ।" उससे पूर्व महाराणा संग्रामसिंह द्वारा भारमल को रणथम्भौर का किलेदार नियुक्त किये जाने का प्राचीन पट्टावलियों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इनसे यह जानकारी भी मिलती है कि भारमल प्रारम्भ में तपागच्छ सम्प्रदाय के अनुयायी थे, बाद में उन्होंने देवागर से प्रभावित होकर नागोरी लोकागच्छ को स्वीकार कर लिया था । उनका परिवार धनी और सम्पन्न था। महाराणा के विश्वस्त दरबारी होने के कारण ही महाराणा संग्रामसिंह द्वारा उनको कुंवर विक्रमादित्य एवं उदयसिंह की सुरक्षा का उत्तरदायित्व देकर रणथम्भौर किले का किले श्रावण शुक्ला ५ को सादड़ी ग्राम में इस ग्रन्थ की रचना सम्पन्न हुई थी। राजस्थान राज्य प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान द्वारा हाल ही में यह ग्रन्थ प्रकाशित किया गया है। २. शोध पत्रिका, वर्ष १४, अंक १, पृष्ठ ६३. २. शोध पत्रिका, सं० १६१६ चित्रकूट महादुर्गे यही जानकारी सादड़ी (मारवाद) स्थित तारा दावड़ी के वि० सं० १६२४ के शिलालेख में उपलब्ध होती है । द्रष्टव्य - श्री रामवल्लभ सोमानी का लेख 'मरुधर केसरी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० १७६ एवं १७८. Jain Education International १. शोधपत्रिका, वर्ष १४, अंक २, पृ० १३५-४७ - इस ग्रन्थ की रचना वि०सं० १६४६ आश्विन शुक्ला १४ को सम्पन्न हुई। श्री अगरचन्दजी नाहटा के अनुसार इस ग्रन्थ की एक अन्य प्रति में रचनाकाल वि०सं० १६४८ मिलता है। ( नागपुरीय लुकागच्छीय पट्टावली का अंश) डा० देवीलाल पालीवाल - सम्पादित महाराणा प्रताप स्मृति ग्रन्थ पृ० ११४, तथा मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० १७७-७८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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