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________________ १०२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड पिछोला झील पर स्थित राजमहलों के सामने दिखने वाली सर्वाधिक ऊँची चोटी को उन्होंने पसन्द किया। अंबाव राजा को निर्माण कार्य की जिम्मेदारी दी गई। उन्होंने चोटी तक पहुँचने के लिए मार्ग से लेकर राजमहल बनाने तक का कार्य सफलता से किया। सज्जनगढ़ के नाम से यह स्थान आज भी प्रसिद्ध है । अंबाव राजा की देखरेख में दूसरा किला उदयपुर की पार्श्ववर्ती पहाड़ी पर बनाया गया । महाराणा ने उसका नाम अंबावराजा के नाम पर अंबावगढ़ दिया। अंबावराजा के छोटे भाई प्यारचन्दजी उग्र प्रकृति के थे। एक बार किसी हत्या के मामले में उन्हें मृत्युदण्ड दे दिया गया । उन्हीं दिनों अंबावराजा ने महाराणा को अपने घर पर निमन्त्रित किया और बहुत बढ़िया सत्कार किया। महाराण। ने प्रसन्न होकर कहा-अंबाव ! जो तेरी इच्छा हो सो माँग ले। अवसर देखकर उन्होंने कहामेरे भाई को मुक्त करने की कृपा करें। महाराणा ने कहा- अरे अंबाव कुछ धन जागीर माँग लेते । अंबावराजा ने विनम्रता से कहा-अन्नदाता, मेरा भाई मौत के फन्दे में लटक रहा है और मैं जागीरी मांगूं । यह कैसे हो सकता है ? महाराणा ने भाई को तत्काल छोड़ दिया और अंबावराजा की प्रशंसा करते हुए कहा-भाई हो तो ऐसा होना चाहिये। महाराणा की कृपा उत्तरोत्तर बढ़ती रही। अंबावराजा का व्यक्तित्व राज्यक्षेत्र और धर्मक्षेत्र दोनों में मान्यता प्राप्त था। मारवाड़ के प्रमुख श्रावक (७) श्री गेहलालजी व्यास- गेरूलालजी व्यास जोधपुरनिवासी ब्राह्मण थे। ये स्वामीजी के प्रथम तेरह श्रावकों में से एक थे। और उन तेरह में भी प्रथम कोटि के कहे जा सकते हैं। तेरापंथ की स्थापना से पूर्व स्वामीजी जब जोधपुर पधारे तब ही इन्होंने परम्परागत धर्म को छोड़कर जैन धर्म स्वीकार किया था। स्वामीजी के सुलझे हुए विचारों से ये बहुत प्रभावित हुए। जैनत्व स्वीकार कर लेने से इनकी बिरादरी के लोग इनसे बहुत नाराज हुए। किन्तु व्यासजी अपनी श्रद्धा में दृढ़ थे। इनका बेटा विवाह के योग्य हो गया किन्तु कोई भी लड़की देने के लिए तैयार नहीं था। व्यासजी ने किसी अन्य गाँव में लड़के का सम्बन्ध किया। दहेज में लड़की के पिता ने अन्य वस्तुओं के साथ मुखवस्त्रिका, आसन और पूंजणी भी दी। इसे देख लोगों ने सम्बन्धियों को परस्पर भिड़ाने के लिए कहा-देखो, समधी ने कैसा मजाक किया है। व्यासजी ने कहा-मजाक नहीं, यह बुद्धिमानी की बात है, क्योंकि समधी जानता है कि मेरी लड़की जैन कुल में जा रही है इसलिए सामायिक, पौषध भी करेगी । इसलिए इन वस्तुओं की जरूरत पड़ेगी। लोग अपने आप चुप हो गये। व्यासजी श्रद्धालु श्रावक होने के साथ धर्मप्रचारक भी थे। उन्हें व्यापारिक कार्यों से दूर प्रदेशों में जाना पड़ता था। वे वहां जाकर व्यापार के साथ-साथ धर्म-चर्चा भी किया करते थे। अनेक व्यक्तियों को उन्होंने सम्यक श्रद्धा प्रदान की। कच्छ में तेरापंथ का बीज वपन करने का श्रेय इन्हीं को है। एक बार १८५१ में ये व्यापारार्थ कच्छ गये । वहाँ मांडवी में टीकमजी डोसी के यहाँ ठहरे। उनसे धर्म-विषयक चर्चा छेड़ी। स्वामीजी की विचारधारा उन्हें बतलायी। वे बहुत प्रभावित हुए और स्वामीजी के मारवाड़ में जाकर प्रत्यक्ष दर्शन किये और सम्यक् श्रद्धा ग्रहण की। उसके बाद कई परिवारों को श्रद्धालु बनाया। (८) श्री विजयचन्दजी पटवा-विजयचन्दजी पाली के धनी व्यक्तियों में सबसे अग्रणी थे। स्वामीजी के पाली पदार्पण के समय सम्पर्क में आये । समाज-भय के कारण ये दिन में नहीं आते। रात्रि में भी प्रवचन सम्पन्न होने के बाद स्वामीजी के पास तत्त्वचर्चा करते थे। एक बार ये अपने मित्र को साथ लेकर आये । चर्चा शुरू हुई । स्वामीजी ने सन्तों से सो जाने के लिए कहा और बताया मुझे अभी कुछ समय लगेगा । प्रश्न-प्रतिप्रश्न चलते रहे। चर्चा चलतेचलते पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी। अन्ततोगत्वा स्वामीजी का रात्रि जागरण सफल हुआ, दोनों व्यक्तियों ने गुरु-धारणा की और अपने घर रवाना हुए। स्वामीजी ने सन्तों को पुकारा-उठो सन्तो ! प्रतिक्रमण का समय होने वाला है । स्वामीजी को विराजे देख सन्तों ने पूछा-आपको विराजे कितनी देर हुई ? स्वामीजी ने कहा- कोई सोया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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