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________________ तेरापंथ के महान् श्रावक १०१ -. -. -. -. -. -. -. -. - . रात्रि में वे सामायिक कर रहे थे। जब वे ध्यानस्थ बैठे थे, एक सर्प उन पर चढ़ गया। हेमजी को उसके लिज लिजे स्पर्श से पता चल गया कि कोई सर्प मेरे पर रेंग रहा है, फिर भी वे वैसे ही अविचल बैठे रहे। साँप पूरे शरीर पर घूमता हुआ एक तरफ चला गया। यह उनकी स्थिरता और निर्भीकता का एक उदाहरण था। एक बार वे अपनी दुकान पर बैठे सामायिक कर रहे थे। किसी ने आकर सूचना दी कि आपके घर पर तो आग लग गई है। साधारण व्यक्ति के मन में जहाँ इस प्रकार के संवाद से उथल-पुथल मच सकती है वहाँ हेमजी का मन डांवाडोल नहीं हआ। सामायिक पूरी होने के बाद जब वे घर पहुंचे तो आग बुझा दी गई थी, कोई विशेष नुकसान भी नहीं हुआ। उनका मुख्य धन्धा ब्याज का था । किसानों और चरवाहों को काफी रकम ब्याज पर देते थे। ब्याज उगाहने में वे वड़ी कोमलता का व्यवहार करते थे। किसी की विवशता से लाभ उठा लेना उनका लक्ष्य नहीं रहता था। एक बार किसी एक व्यक्ति ने उनसे रुपये उधार लिये। स्थिति बिगड़ जाने से वह रुपया चका नहीं पाया। हेमजी ने जब रुपया चुकाने के लिए तकाजा किया तो उसने दयनीय शब्दों में कहा-वैसे तो रुपया चुकाने में असमर्थ हूँ। इतना तो हो सकता है कि मैं अपनी भेड़ बकरियों को बेचकर आपकी रकम चुका दू किन्तु इससे मेरा सारा परिवार भूखा मर जायेगा । हमारा गुजारा इन्हीं पर निर्भर है। हेमजी ऐसा नहीं चाहते थे, उन्होंने उस राशि को बट्टे खाते लिखकर खाता बरावर कर दिया । यही उनके आदर्श धार्मिकता की निशानी थी। (५) श्री जोधोजी-बावलास निवासी श्रावक जोधोजी ऋषिराय के समय के श्रावक थे। आर्थिक अवस्था से कमजोर होते हुए भी अनैतिकता का एक भी पैसा घर में नहीं लाना चाहते थे। सन्तोष और सादगी प्रधान इनका जीवन था। इनके सात पुत्रियाँ थीं। उस समय लड़कियों की कीमत ज्यादा थी। क्योंकि लड़के वाले को विवाह करने के लिए धन देने पर लड़कियाँ मिलती थीं। एक-एक समय की स्थिति होती है। तो ऐसे समय में सात पुत्रियाँ होना सौभाग्य की बात थी, क्योंकि घर बैठे ही जोधोजी धनवान बन जाते, किन्तु जोधोजी ने इस परम्परा का बहिष्कार किया। उन्होंने लड़कियों को पैसों में बेचना उचित नहीं समझा । सातों पुत्रियों को अच्छे घरों में ब्याहा गया। जहाँ भी इनकी लड़कियाँ गईं, इन्होंने पूरे घर को तेरापंथी बना लिया और दूसरे परिवारों को भी अपने अनुकूल बनाया। वावलास में एक चमार भी श्रावक था। बड़ी लगन वाला भक्त था। जोधोजी श्रावकों में मुखिया थे । उस चमार श्रावक के साथ उनका अच्छा पारस्परिक सौहार्द था। किसी कारण से दोनों में खटपट हो गई । एक बार किसी राहगीर ने चमार श्रावक को सूचना दी कि मुनि हेमराजजी बावलास पधार रहे हैं, बस थोड़ी ही देर में पहुंचने वाले हैं । अब प्रमुख श्रावक जोधोजी को समाचार बताना जरूरी हो गया। वह पशोपेश में पड़ गया क्योंकि उनके साथ बोलचाल बन्द थी। आखिर उसने निर्णय किया कि यह वैयक्तिक झगड़ा है, धर्म के कार्य में तो हम एक ही हैं। वह चमार जोधोजी के घर गया और यह समाचार बताया। हेमराजजी स्वामी गाँव में पधारे, व्याख्यान हुआ। जोधोजी उस चमार के सार्मिक वात्सल्य से इतने प्रभावित हुए कि व्याख्यान समाप्ति पर खड़े होकर बोले "इस चमार ने मुनिश्री के आगमन का समाचार मिलते ही मुझे खबर दी। मुझे अगर सूचना मिलती तो शायद मैं इसे नहीं कहता । मैं सेठ होकर भी इस चमार से गया। बीता ठहरा और यह चमार होकर भी मुझसे ऊँचा उठ गया।" । जोधोजी की आत्म-निन्दा ने उनको महान् बना दिया । दोनों में फिर से अच्छा सम्बन्ध जुड़ गया । गुरुदर्शन के निमित्त अनेक बार इन्होंने पद यात्राएँ भी की थी। कहते हैं पूरी यात्रा में एक रुपया से अधिक खर्च उनका नहीं होता था। (६) श्री अम्बालालजी मुरड़िया-सुप्रसिद्ध श्रावक श्री अम्बालालजी मुरड़िया उदयपुर के निवासी थे। वे श्रीलालजी मुरडिया के सुपुत्र थे। जयाचार्य के पास इन्होंने गुरु-धारणा ली थी। ये राजकीय और धार्मिक दोनों कार्यों में प्रमुख थे। वे उस समय के एक कुशल अभियन्ता थे। महाराणा सज्जनसिंहजी के कृपा-पात्र थे। इनकी सेवाओं से तुष्ट होकर महाराणा ने उनको 'राजा' की उपाधि से अलंकृत किया था। तत्पश्चात् लोग उन्हें 'अंबाब राजा' कहकर ही पुकारते थे। एक बार महाराणा सज्जनसिंहजी की भावना हुई कि किसी पर्वत पर अपने नाम से किला बनाया जाए। -0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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