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________________ ७० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षण्ठ खण्ड भी भट्टारक कहे जाने लगे। तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक भट्टारक शब्द एक गण विशेष और प्रवृत्तिविशेष का द्योतक हो गया। वस्त्र-धारण का औचित्य-श्वेताम्बर परम्परा के चैत्यवासी और वनवासी मुनि तो वस्त्र-धारण करते ही थे। समय के प्रभाव से दिगम्बर परम्परा के चैत्यवासी मुनियों में भी वस्त्र-धारण का विधान कर दिया गया था। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के श्रुतसागरसूरि ने लिखा है कि कलिकाल में म्लेच्छादि यतियों को नग्न देखकर उपद्रव करते हैं, इस कारण मण्डपदुर्ग में श्रीवसंतकीर्ति ने वस्त्र धारण करने का अपवाद रूप में विधान किया था ।' यह वसंतकीति विक्रम संवत् १२६४ के लगभग हुए हैं । इस समय तक समाज में मुसलमानों का आतंक भी बढ़ रहा था। अतः स्वाभाविक है कि दिगम्बर साधु तेरहवीं शताब्दी में बाहर निकलते समय लज्जा-निवारण के लिए वस्त्र-धारण करणे लगे। ___ वस्तुतः भट्टारक समाज में आदर्श मुनि के रूप में मान्य थे। किन्तु कालान्तर में भट्टारक-पीठ भौतिक सामग्रियों से सम्पन्न हो गये और पीठाधीश भट्टारक स्वच्छन्द प्रवृत्तियों में आसक्त हो गये । फलतः भट्टारकों का प्रभाव क्षीण हो गया । अधुना अनेक भट्टारक पीठ हैं परन्तु उनका दिगम्बर समाज में विशेष महत्त्व नहीं है। 0000 १. कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वोपद्रवं कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसंतकीर्तिना स्वामिनाचर्यादिवेलादां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुच्यन्तीत्युपदेशः कृतः संयमिनां इत्यपवादवेषः । -षट्प्राभृतटीका, पृ० २१ २. द्रष्टव्य--प्रेमी, नाथूराम-जन साहित्य का इतिहास, पृ० ४६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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