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________________ भट्टारक परम्परा ६६ ...................................................................... इसका प्रयोग हुआ है । अपभ्रंश काव्यों में स्वयंभू के पउमचरिउ में सागरबुद्धि भट्टारक का उल्लेख है, जिससे विभीषण रावण के राज्य का भविष्यफल पूछता है। इससे प्रतीत होता है कि ईसा की आठवीं शताब्दी में जैनमुनि 'भट्टारक' शब्द से सम्बोधित होते थे तथा भविष्यफल जैसे लौकिक कार्यों में भी प्रवृत्त होते थे। अपभ्रंश के अन्य काव्यों में भी 'भडारय' शब्द प्रयुक्त हुआ है ।' इन साहित्यिक उल्लेखों के अतिरिक्त भट्टारक शब्द के प्रयोग के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक उल्लेख भी प्राप्त होते हैं, जिनमें ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, अभिलेख एवं पट्टावलियाँ प्रमुख हैं । ग्रन्थों की प्रशस्तियों में षट्खण्डागमटीका धवला (वि० सं० ८३८) में वीरसेन के साथ भट्टारक विशेषण का प्रयोग हुआ है । इसमें कहा गया है कि सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण आदि शास्त्रों में निपुण वीरसेन भट्टारक के द्वारा यह टीका से लिखी गयी है। कषायपाहुड टीका जयधवला (वि०सं० ८४०) में जिनसेन के द्वारा वीरसेन को भट्टारक कहा गया है जो विश्वदर्शी तथा साक्षात् केवली थे।५ उत्तरपुराण की प्रशस्ति (वि०सं० ९५५) में भी वीरसेन को भट्टारक कहा गया है। इन ग्रन्थ-प्रशस्तियों के अतिरिक्त पट्टावलियों में भी भट्टारक शब्द के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। नागपुर की पट्टावलियों में सोमसेन भट्टारक, वीरसेन भट्टारक, माणिक्यसेन भट्टारक आदि अनेक नाम मिलते हैं। शिलालेखों में भी मुनियों के साथ भट्टारक शब्द का प्रयोग हुआ है। हिरेआवली शिलालेखों में जो वि० सं० ११८१ का है, पोडगरिगच्छ के माधवसेन का उल्लेख है। इस प्रकार जैनमुनियों के साथ भट्टारक शब्द प्राचीन समय से ही प्रयुक्त होता रहा है। उक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट होता है कि भट्टारक विशेषण ज्ञान, चारित्र एवं साहित्य-साधना में विशिष्ट स्थान रखने वाले मुनियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। संभवत: इन मुनियों का स्वामित्व, पाण्डित्य, ज्ञान एवं चारित्र उत्कृष्ट होने से ही इन्हें भट्टारक कहा गया है। आगे चलकर यह भट्टारक शब्द भौतिक वस्तुओं एवं पद के स्वामित्व का भी द्योतक बन गया होगा। ___ डॉ० जोहरापुरकर ने 'भट्टारक संप्रदाय' नामक पुस्तक में भट्टारक संप्रदाय के जिन गणों और गच्छों का परिचय दिया है तथा उनसे सम्बन्धित प्राचीन लेखों, प्रशस्तियों का संकलित किया है, उनमें भट्टारक शब्द आठवीं से दशवीं शताब्दी तक के साक्ष्यों में बहुत कम प्रयुक्त हुआ है। किन्तु तेरहवीं शताब्दी के बाद भट्टारक शब्द प्रायः सभी पट्टधरों के साथ प्रयुक्त मिलता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि भट्टारक शब्द किसी संप्रदाय या परम्परा का द्योतक नहीं था, केवल सम्बोधन अथवा पूज्य के अर्थ में मुनियों के साथ उसका प्रयोग होता था। जब अनेक गणों के मुनियों की कार्य-प्रणाली एक सी हो गयी और उनके गुरु भट्टारक के नाम से प्रसिद्ध थे तो बाद के शिष्य १. स्वस्ति समस्तभुवनाश्रयश्रीपृथ्वी वल्लभमहाराजाधिराजपरमेश्वरभट्टारक.............. | जोहरापुरकर, विद्याधर भट्टारक संप्रदाय, ले० ८६. २. पभणइ सायरबुद्धि भट्टारउ । कुसुमाउह-सर-पसर-णिवारउ ॥-पउमचरिउ, २१ संधि, १. ३. द्रष्टव्य-भविसयत्तकहा आदि। ४. सिद्धत छंद जोइस वायरण पमाण सत्थ णिवुणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ।। -धवलाप्रशस्ति, पृ० ३६. ५. श्रीवीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः । पारदृश्वादिविश्वानां साक्षादिव स केवली ।। -जपत्रबलाटीका, भाग १, प्रस्तावना , पृ० ६६. ६. आचार्य, गुणभद्र, उत्तरपुराण, ग्रन्थप्रशस्ति, २-४, पृ० ५७३. ७. द्रष्टव्य-जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय, लेख ३७, ३८, ४०, पृ० १३-१४ ८. स्वस्ति श्रीमतु... श्रीमन्मूलसंघद सेनगणद पोगरिगच्छद चन्द्रप्रभसिद्धांतदेवशिष्य""माधवसेन भट्टारकदेवरु । ---जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय, पृ० ७ पर उद्धृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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