SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1039
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड के प्राचीन राज्यों को गणराज्य कहा जाता है। इन राज्यों में सार्वभौम सत्ता किसी एक व्यक्ति या अल्पसंख्यक ।। को न मिलकर बहु-संख्यक वर्ग को प्राप्त थी।" महाभारत में भी 'प्रत्येक घर में राजा' होने का वर्णन है। उपर्युक्त विद्वान् के मतानुसार, इस वर्णन में छोटे गणराज्यों की तथा उन क्षत्रिय कुलों की चर्चा है जिन्होंने उपनिवेश स्थापित करके राजपद प्राप्त किया था। संयुक्त राज्य अमरीका में मूल उपनिवेश स्थापकों को नवागन्तुकों की अपेक्षा कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे । _ 'मलाबार गजटियर' के आधार पर श्री अम्बिकाप्रसाद बाजपेयी ने 'नय्यरों के एक संघ' की ओर ध्यान आकर्षित किया है जिसमें ६००० प्रतिनिधि थे। वे केरल की संसद के समान थे । बौद्ध-साहित्य से ज्ञात होता है कि राजा बिम्बिसार श्रेणिक के अस्सी हजार गामिक (ग्रामिक) थे। इसी सादृश्य पर अनुमान किया जा सकता है कि ७७०७, राजा विभिन्न क्षेत्रों (या निर्वाचन-क्षेत्रों) के उसी रूप में स्वतन्त्र संचालक थे जिस प्रकार देशी रियासतों के जागीरदार राजा के आधीन होकर भी अपनी निजी पुलिस की तथा अन्य व्यवस्थाएँ करते थे। वैदेशिक सम्बन्ध लिच्छवियों के वैदेशिक सम्बन्धों का नियन्त्रण नौ सदस्यों की परिषद् द्वारा होता था। इनका वर्णन बौद्ध एवं जैन साहित्य में 'नव लिच्छवि' के रूप में किया गया है। अजातशत्रु के आक्रमण के मुकाबले के लिए इन्हें पड़ोसी राज्यों नवमल्ल तथा अष्टादश काशी कौशल के साथ मिलकर महासंघ बनाना पड़ा। उन्होंने अपने सन्देश के लिए दूत नियुक्त किए (वेशालिकानां लिच्छविनां वचनेन)। न्याय-व्यवस्था न्याय-व्यवस्था अष्टकुल सभा के हाथ में थी। श्री जायसवाल ने 'हिन्दू राजशास्त्र' (पृ० ४३-४७) में इनकी न्याय-प्रक्रिया का निम्नलिखित वर्णन किया है—विभिन्न प्रकरणों (पवे-पट्ठकान) पर गणराजा के निर्णयों का विवरण सावधानीपूर्वक रखा जाता था जिनमें अपराधी नागरिकों के अपराधों तथा उनके दिए गए दण्डों का विवरण अंकित होता था। विनिश्चय महामात्र (न्यायालयों) द्वारा प्रारम्भिक जाँच की जाती थी (ये साधारण अपराधों तथा दीवानी प्रकरणों के लिए नियमित न्यायालय थे)। अपील-न्यायालयों के अध्यक्ष थे—वोहारिक (व्यवहारिक)। उच्च-न्यायालय के न्यायाधीश 'सूत्रधार' कहलाते हैं । अन्तिम अपील के लिए 'अष्ट-कुलक' होते थे। इनमें से किसी भी न्यायालय द्वारा नागरिकों को निरपराध घोषित करके मुक्त किया जा सकता था। यदि सभी न्यायालय किसी को अपराधी ठहराते तो मन्त्रिमण्डल का निर्णय अन्तिम होता था। विधायिका लिच्छवियों के संसदीय विचार-विमर्श का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण प्राप्त नहीं होता, परन्तु विद्वानों ने चुल्लवग्ग एवं विनय-पिटक के विवरणों से इस विषय में अनुमान लगाए हैं। जब कौशलराज ने शाक्य-राजधानी पर आक्रमण किया और उनसे आत्म-समर्पण के लिए कहा तो शाक्यों द्वारा इस विषय पर मतदान किया गया । मत-पत्र को 'छन्दस्' एवं कोरम को 'गणपूरक' तथा आसनों के व्यवस्थापक को 'आसन-प्रज्ञापन' कहा जाता था। गणपूरक के अभाव में अधिवेशन अनियमित समझा जाता था। विचारार्थ प्रस्ताव की प्रस्तुति को 'ज्ञप्ति' कहा जाता था। संघ से तीनचार बार पूछा जाता था कि क्या संघ प्रस्ताव से सहमत है । संघ के मौन का अर्थ सहमति या स्वीकृति समझा जाता १. डॉ. ए. एस० अल्तेकर-प्राचीन भारत में राज्य एवं शासन (१९५८), पृ० ११२-१३. २. गृहे-गृहे तु राजान:-महाभारत, २०१५।२. ३. अम्बिकाप्रसाद बाजपेयी, हिन्दू राज्यशास्त्र, पृ० १०४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy