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________________ रयणसेहरीकहा एवं जायसी का पद्मावत ६३५ . ............................................................ ..... सौन्दर्य वर्णन, नगर-प्रवेश वर्णन इत्यादि अनेक वर्णन किये हैं जो काव्य को पर्याप्त रोचक एवं मनोरंजक बनाने में सफल हुए हैं। इसके कुछ उदाहरण आगे दिये गये हैं। (४) धर्म-जिनहर्षगणि जैन धर्म के पालक पंचमहाव्रतधारी साधु थे' तथा जायसी संसार से विरक्त सूफी फकीर थे। वैराग्य भावना का दोनों में प्राधान्य है । दोनों सांसारिक भोगों से दूर थे तथा भवसागर से पार होने के लिए धर्माराधना में लगे थे। जिनहर्षगणि ने स्थान-स्थान पर जैन धर्म में पर्व-तिथियों एवं उनके फल का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। जायसी ने सूफी प्रेम मार्ग का वर्णन किया है। (५) गुरु-महिमा-१५वीं १६वीं शताब्दी तक गुरु को बहुत महत्त्व दिया जाने लगा था। उस समय गुरु को ईश्वर से भी बड़ा माना जाता था। इससे ये दोनों कवि भी अछूते नहीं रहे। दोनों ने अपने गुरु का उल्लेख बडी श्रद्धा व भक्ति के साथ किया है। जिनहर्षगणि ने अत्यन्त भक्ति के साथ अपनी श्रद्धा के पुष्प गुरु के चरणों में चढ़ाए हैं। जायसी ने भी भाव-भक्ति से स्वयं को गुरु का सेवक मानकर उल्लेख किया है। गुरु के प्रति भक्ति से परिपूर्ण हृदय से गुरु को खेने वाला माना है । वे कहते हैं कि गुरु की कृपा से ही मैंने योग्यता पायी जिससे यह काव्य लिख सका। गुरु के प्रति ऐसी अटूट श्रद्धा देखकर कौन विभोर नहीं हो जाता।। (६) ईश्वर-प्रार्थना-ईश्वर के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति भावना जिनहर्षगणि एवं जायसी में विद्यमान है। प्रभु भक्ति इनके हृदय में कूट-कूटकर भरी है। जिनहर्षगणि ने भगवान महावीर के चरण-कमलों में प्रणाम करके अपने कथा-ग्रन्थ का प्रारम्भ किया है। इन्होंने अपनी कथा उन्हीं के मुख से कहलायी है। जायसी ने भी ईश्वर को सब कार्यों का कर्ता बताया है। जायसी ने उसी एक मात्र ईश्वर का स्मरण करके ग्रन्थ का प्रारम्भ किया है। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि दोनों कवियों के विचारों आदि में काफी समानता है। समय की दृष्टि से से भी इनमें अधिक अन्तर नहीं है। रत्नशेखरकथा पद्मावत से केवल ८५ वर्ष पूर्व लिखी गई थी। अत: ऐसा लगता है कि जायसी ने रत्नशेखर कथा को पढ़कर पद्मावत की रचना की होगी। समय में अधिक अन्तर न होने के कारण उस समय प्रचलित परिपाटी के अनुसार अपने काव्यों में गुरु स्तुति इत्यादि को समान रूप से ग्रहण किया है। ३. कथानक-रूढ़ियाँ प्राय: हर कथानक में कुछ प्रयोग ऐसे मिलते हैं जिनका सम्बन्ध कथानक-रूढ़ियों से होता है। जैसे--तोते, किन्नर इत्यादि द्वारा नायिका का सौन्दर्य-वर्णन, चन्द्रमा-चकोर का प्रेम सम्बन्ध इत्यादि। इनके माध्यम से कवि अपने कथानक को रोचक बनाते हैं । कथा को मनोरंजक बनाने के लिए जिन अभिप्रायों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें ही कथानक-रूढ़ियाँ कहते हैं । भारतीय साहित्य में कथानक-रूढ़ियाँ अत्यन्त प्रचलित हैं। अत: जिनहर्षगणि एवं जायसी ने भी कई रूढ़ियों का प्रयोग करके अपने काव्य को सरस बनाया है। इन कथाओं की कुछ प्रमुख कथानक-रूढ़ियाँ निम्नलिखित हैं (१) सिंहलद्वीप को सुन्दरी-ग्रीक कथा-साहित्य में जिस प्रकार सुन्दरी हेलन सम्बन्धी रूढ़ि है उसी प्रकार १. रयणसेहरीकहा, गाथा १५० २. डॉ० द्वारिकाप्रसाद सक्सेना, पद्मावत में काव्य, सस्कृति और दर्शन, पृ० १५, -विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा, १९७४ ३. रयणसेहरीकहा, पृ०१ ४. पद्मावत, १२४१३-६ ५ रयणसेहरीकहा, गाथा १४६ ६. पद्मावत, २०११ ७. रयणसेहरीकहा, पृ०१ ८. पद्मावत, ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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