SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ढूंढ़ निकालना उतना ही दुष्कर है कितना अनाजके ढेरसे खोई हुई एक सुई। अब सतहके ऊपर चलनेवाले भारी भरकम एवं पूर्णरूपेण युद्धास्त्रोंसे सज्जित जलयानों के लिए निरन्तर खतरा बना हुआ है। कोई भी पनडब्बी, किसी भी समय एवं किसी भी दिशासे इनपर आक्रमण कर सकती है और जलमग्न होनेपर विवश कर सकती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व नौबेड़ेका मुख्य साधन 'युद्धपोत' था। इसकी रचना इतनी सुदृढ़ थी कि यह एक किलेकी भांति था। इसमें प्रहारके लिये शक्तिशाली तोपें एवं 'तारपीडो' लगे थे। पनडुब्बी एवं विमानके आक्रमणोंसे सुरक्षाके लिये इसके साथ 'फ्रिगेट' 'डेस्ट्रायर' (ध्वंसक) एवं क्रसर होते थे जो छोटे होनेके कारण अधिक गतिशील थे । ब्रिटेनके दो विशालकाय तोप 'प्रिंस आफ वेल्स' एवं 'रिपल्स' जिन्हें विगत यद्ध में सिंगापुर भेजा गया था इन्हीं उपकरणोंके अभावमें जापानी विमानोंका शिकार बन ग प्रयुक्त तोपें एवं हथियार निष्क्रिय रहे । यद्धके लिये प्रयोग किये जानेवाले नोपोतोंके निर्माणके बीच सन्तुलन रखना आवश्यक है। उदाहरणार्थ तीन-चार हजार टन वजनके एक जहाजकी यदि सुरक्षामें ही ध्यान दिया जाय तो वह क्षतिग्रस्त होनेसे तो बच जायेगा पर शत्रके जहाजोंको क्षति पहुँचाने में असमर्थ रहेगा इसके विपरीत यदि रक्षा उपकरण नहीं है तो संहार शक्ति प्रबल होने पर भी संभव है शत्रुका पहला गोला ही उसे नष्ट कर दे अतः सन्तुलन नितान्त आवश्यक है। जल युद्ध प्रायः समान वर्गवाले नौपोतोंके मध्य होता है । युद्धपोत युद्धपोतसे, क्रूसर-क्रूसरसे एवं अन्य वर्गोंके नौपोत अपने समकक्ष नौपोतोंसे टकराते हैं। जहाँ ऐसे सादृश्यका अभाव होता है वहाँ 'क्रूसर' जैसे दो और तीन जहाज मिलकर एक युद्धपोतका मुकाबला करते हैं। इसका कारण स्पष्ट है एक युद्धपोत एक से अधिक वजनका विस्फोटक गोला प्रायः ७० मीलकी दूरी तक फेंक सकता है और क्रसर उससे कम दूरी तक फेंक सकता है और 'ड्रेस्ट्रायर' एवं 'फ्रिगेट' तो केवल ५० पौंडका गोला ७ मील तक ही फेंक सकते हैं। यदि कोई 'डेस्ट्रायर' किसी 'युद्धपोत'से भिड़ जाये तो 'डेस्ट्रायर' की मारसे पूर्व ही वह युद्धपोत द्वारा विनष्ट कर दिया जायेगा। यही कारण है कि नौसैनिक युद्ध में जहाज अपने वर्गके पोतोंसे ही भिड़ते हैं। वर्तमान युगमें नौसैनिक युद्धका स्वरूप पूर्णरूपेण बदल गया है। अब सुदृढ़ता एवं आत्मरक्षाकी क्षमता घटाये बगैर तेज पनडुब्बियों द्वारा आक्रमणको सहन करनेकी क्षमताको बढ़ाना अनिवार्य हो गया है। नौ बेड़ेकी छोटी 'यूनिटोंने अपने ऊपर 'पनडुब्बी ध्वंसक' तथा 'विभान ध्वंसक'का काम भी ले लिया है। यह काम "फ्रिगेट' करते हैं जो शत्रुकी पनडुब्बियोंसे अपनी रक्षा करते हैं। समुद्री बन्दरगाहों एवं शकी तटवर्ती सेनाके बीच संकट उत्पन्न करनेके लिये 'सर' नामक जलयानोंका प्रयोग होता है। पर नौबेडेकी कहानीका अन्तिम चरण 'विमान वाहक' है। अब स्वतंत्र भारतीय सरकार भी नौसेनाके महत्त्वको समझने लगी है । २६ जनवरी, सन् १९५० में गणतन्त्रकी घोषणाके साथ ही हमारी 'नौसेना'का भारतीयकरण कर दिया गया एवं उसमें से 'रायल' शब्द हटाकर इसे 'भारतीय नौसेनाके नामसे सम्बोधित किया गया। २७ मई, १९५१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसादने सशस्त्र सेनाके कमाण्डरके रूपमें नौसेनाको राष्ट्रपतिकी ध्वजा प्रदान की। सबसे पहले सन् १९४८ में ब्रिटेनसे ७१३० टन वजनका एक युद्धपोत 'एच० एम० एस० एचलिस' मंगाया गया जिसका नाम बदल कर 'आइ० एन० एस० देहली' रखा गया। इस जहाजने पिछले युद्ध में 'लिट' नदी पर काफी हा हा इतिहास और पुरातत्त्व : ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy