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________________ यद्यपि राघोचेतन ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और अलाउद्दीन खिलजीके समय हुए हैं। यह व्यास जातिके विद्वान्, मंत्र-तंत्रवादी और नास्तिक थे। धर्मपर इनकी कोई आस्था नहीं थी, इनका विवाद मुनि महासेनसे हुआ था, उसमें यह पराजित हुए थे। ऐसी ही घटना जिनप्रभसूरि नामक श्वेताम्बर विद्वान्के सम्बन्ध में कही जाती है-एक बार सम्राट मुहम्मदशाह तुग़लककी सेवामें काशीसे चतुर्दश विद्या निपुण मंत्र-तंत्रज्ञ राघव चेतन नामक विद्वान् आया। उसने अपनी चातुरीसे सम्राटको अनुरंजिन कर लिया। सम्राटपर जैनाचार्य श्रीजिनप्रभसूरिका प्रभाव उसे बहुत अखरता था। अतः उन्हें दोषी ठहराकर उनका प्रभाव कम करनेके लिए सम्राट्की मुद्रिकाका अपहरण कर सूरिजीके रजोहरणमें प्रच्छन्न रूपसे डाल दी (देखो जिनप्रभसूरि चरित पृ० १२)। जबकि यह घटना अलाउद्दीन खिलजीके समयकी होनी चाहिये । इसी तरह की कुछ मिलती-जुलती घटना भ. प्रभाचन्द्रके साथ भी जोड़ दी गई है। विद्वानोंको इन घटनाचक्रोंपर खूब सावधानीसे विचार कर अन्तिम निर्णय करना चाहिये। टीका-ग्रंथ पट्टावलीके उक्त पद्यपरसे जिसमें यह लिखा गया है कि पूज्यपादके शास्त्रोंकी व्याख्यासे उन्हें लोकमें अच्छा यश और ख्याति मिली थी। किन्तु पूज्यपादके 'समाधितंत्र' पर तो पं० प्रभाचन्द्रकी टीका उपलब्ध है। टीका केवल शब्दार्थ मात्रको व्यक्त करती है उसमें कोई ऐसी खास विवेचना नहीं मिलती जिससे उनकी प्रसिद्धिको बल मिल सके। हो सकता है कि वह टीका इन्हीं प्रभाचन्द्रकी हो, आत्मानुशासनकी टीका भी इन्हीं प्रभाचन्द्रकी कृति जान पड़ती है, उसमें भी कोई विशेष व्याख्या उपलब्ध नहीं होती। रही रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीकाकी बात, सो उस टीकाका उल्लेख पं० आशाधरजीने अनगार धर्मामृतकी टीकामें किया है। ___ 'यथाहुस्तत्र भगवन्तः श्रीमत्प्रभेन्दुपादा रत्नकरण्डटीकायां चतुरावर्तत्रितय इत्यादि सूत्रे द्विनिषद्य इत्यस्य व्याख्याने देववन्दनां कुर्वता हि प्रारम्भे समाप्तौ चोपविश्य प्रणामः कर्तव्य इति ।' इन टीकाओंपर विचार करनेसे यह बात तो सहज ही ज्ञात होती है कि इन टीकाओंका आदि-अन्त मंगल और टीकाकी प्रारंभिक सरणीमें बहुत कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है। इससे इन टीकाओंका कर्ता कोई एक ही प्रभाचन्द्र होना चाहिये। हो सकता है कि टीकाकारकी पहली कृति रत्नकरण्डक टीका ही हो और शेष टीकाएं बादमें बनी हों। पर इन टीकाओंका कर्ता पं० प्रभाचन्द्र ही है पर रत्नकरण्ड टीकाके कर्ता रक्ताम्बर प्रभाचन्द्र नहीं हो सकते। प्रमेयकमल मार्तण्डके कर्ता प्रभाचन्द्र इनके कर्ता नहीं हो सकते । क्योंकि इन टीकाओंमें विषयका चयन और भाषाका वैसा सामंजस्य अथवा उसकी वह प्रौढ़ता नहीं दिखाई देती, जो प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में दिखाई देती है। यह प्राय: सुनिश्चित-सा है कि धारावासी प्रभाचन्द्राचार्य जो माणिक्यनन्दिके शिष्य थे उक्त टीकाओंके कर्ता नहीं हो सकते । समय-विचार प्रभाचन्द्रका पट्टावलियोंमें जो समय दिया गया है, वह अवश्य विचारणीय है। उसमें रत्नकीतिके पट्रपर बैठनेका समय सं० १३१० तो चिन्तनीय है ही। सं. १४८१ के देवगढ़ वाले शिलालेखमें भी २५ भाषा और साहित्य : १९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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