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________________ श्रीयुत् मँवरलालजी नाहटा ने जब मुझे देखा तो उन्हें बहुत ही प्रसन्नता हुई। वे उस समय 'विविध तीर्थकल्प' नामक ग्रन्थ का सम्पादन कर रहे थे । परिशिष्ट गत तित्थकप्प ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति में कई जगह अक्षर लुप्त थे, कई स्थलों पर अशुद्ध पाठ था. मेरे पास वे उस ग्रन्थ को लेकर आए । उस दिन मेरे स-मौन उपवास था । परन्तु उनकी जिज्ञासा बुद्धि और विनम्रता देखकर मैं मौन में ही लिख कर उक्त ग्रन्थ के संशोधन में प्रवृत्त हो गया । मगर एक दिन में कितना संशोधन होता । दूसरे दिन उनको कलकत्ता जाना था। इसलिये वे उक्त ग्रन्थ के पन्ने मेरे पास संशोधनार्थ रख कर चले गए। मैंने दो-तीन दिन में उक्त पन्नों को देख कर जहाँ तक मेरी बुद्धि पहुँची. उन पन्नों का संशोधन किया और उन्हें कलकत्ता भेज दिया । एक व्यापारी का, ऐतिहासज्ञ एवं शोधकार होना आश्चर्यजनक लगता है। जिसमें राजस्थान का व्यापारी. प्राचीन युग में दो-तीन कक्षा तक पढ़ा हुआ होता था, अधिक से अधिक हुआ तो मेट्रिक तक पढ़ लिया । इससे आगे विरानचिह्न लग जाता था। परन्तु श्री भंवरलालजी नाहटा इतने पढ़े-लिखे न होने पर भी बी० ए०. एम०ए० पढ़े हुए आधनिक सुशिक्षितों से आगे थे । आप पढ़े हुए अधिक नहीं. पर गुने हुए अधिक हैं। संस्कृत और प्राकृत जैसी दुरुह भाषा आपने स्कूल में नहीं पढ़ी. परन्तु शोध-कार्य करते-करते आप संस्कृत और प्राकृत के विद्वानों से भी आगे बढ़ गए। आपकी इस प्रकार स्फुरणाशक्ति और प्रतिमा देखकर आश्चर्यचकित होना पड़ता है। विद्वता के साथ विनम्रता एवं चारित्र शीलता उनके जीवन में सोने में सुगन्ध का कार्य करती है। वे अपनी दनिक चर्या में प्रभु-पूजा-भक्ति में तल्लीन हो जाते हैं। अकसर देखा गया है कि विद्वता के साथ चारित्रशीलता कम हो जाती है, परन्तु नाहटाजी में ये दोनों चीजें साथ-साथ चलती हैं। देव गुरु और धर्म के प्रति उनकी श्रद्धाभक्ति जितनी गहरी है, उतनी ही धर्माचरण के प्रति उनकी लगन है । उनमें साम्प्रदायिक कट्टरता नाम मात्र को भी नहीं है। खरतरगच्छय परम्परा के होते हुए भी वे, प्रत्येक गच्छ और संघ की परम्परा के साधु-सन्तों के पास जाते हैं। उनके गुणों को ग्रहण करते हैं। गुगग्राहकता उनमें कूट-कूट कर भरी है। गत वर्ष शिखरजी में अञ्चलगच्छीय आचार्य सम्राट श्री गुणसागरसूरिजी का चातुर्मास था । भगवान् महावीर की जन्मभूमि के स्थल का निर्णय करने हेतु उन्होंने तथा गणिवर्य श्री कलाप्रभसागर जी ने इतिहास विदों के सम्मेलन का आयोजन कराया था। उस सम्मेलन में मैं भी आमंत्रित था। आपश्री ने अपना विद्वतापूर्ण शोधपत्र भगवान महावीर की जन्मभूमि के विषय में अकाटय प्रमाण प्रस्तुत करते हुए तेयार किया था। उसमें एक से बढ़कर एक युक्तियाँ और प्रमाण प्रस्तुत किये गए थे कि सबको मानना पड़ा कि भगवान् महावीर की वास्तविक जन्मभूमि वा स्थल क्षत्रियकुण्ड लछुवाड़ ही है। सचमुच आपको देवी सरस्वती का कोई अपूर्व वरदान है कि कठिन से कठिन और किसी के सहसा समझ में न आने वाली लिपि को भी आप पढ़ लेते हैं। नन्दीसूत्र में उक्त चार प्रकार की बुद्धियों में से औत्पातिकी बुद्धि का आप में प्रत्यक्ष चमत्कार देखा जा सकता है। मैं आप जैसे गुणवान और प्रतिभाशाली व्यक्तियों का आदर करता हूँ। और मंगल भावना करता हूँ कि आप दीर्घायु और स्वस्थ रहें और साहित्य-सेवा के माध्यम से जिन शासन की सेवा करें। -मुनि नेमिचन्द्र [७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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