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________________ जहाँ तक मुझे खयाल आता है श्री नाहटाजी के साथ मेरा पहला परिचय भगवान महावीर की पचीसवीं निर्वाण-शती के अवसर पर पावापुरी में हुआ। पावापुरी के उस पावन प्रसंग पर श्री नाहटाजी के मक्ति-भावनामय व्यक्तित्व के साथ-साथ उनकी सहृदयता- सरलता का भी परिचय मिला। उसके वाद कलकता प्रवास में उनके व्यक्तित्व के कई और पहलू भी सामने आए इतिहास के प्रति उनका दृष्टिकोण अपनी मौलिक पकड़ रखता है। प्राचीन शिलालेखों तथा पांडुलिपियों का गहरा अध्ययन जैन इतिहास का तलस्पर्शी विवेचन, समाज सेवा. सादगी. पूर्ण जीवन सिद्धान्तवादिता आदि विशेषताओं से मैं अपने कलकत्ता-प्रवास में ही अवगत हुआ। उसके पश्चात् वह परिचय प्रगाढ़तर होता गया। अक्टूबर १९८१ में हमने तेरापंथ से त्याग पत्र देकर नव-तेरापंथ की घोषणा की । इस विचार क्रान्ति का उद्देश्य जैन धर्म को व्यापक भूमिका पर प्रतिष्ठित करना था । इसीलिये अब वह नव तेरापंथ से आगे बढ़ती हुई जैन संगम के रूप में प्रवाहित हो रही है। इतना ही नहीं. नवकार महामन्त्र को आधार शिला बनाकर मानव मन्दिर के रूप में यह तेजी से विस्तार पा रही है । इस विचार क्रान्ति की घोषणा के अवसर पर श्री नाहटाजी जयपुर स्थित दादावाड़ी में उपस्थित होकर अपनी मंगल कामनाएँ प्राकृत भाषा में प्रकट की । उस अवसर पर उनके आशु कवित्व से मेरा परिचय हुआ । उसके पश्चात् अपने पिछले चातुर्मास में श्री नाहटाजी से पूज्य दादा गुरुदेव के जीवन तथा साधना पर कुछ दुर्लभ जानकारी मिली । इन सारे सन्दर्भों के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि श्री नाहटाजी गुदड़ी में छुपे हुए लाल हैं। समाज ने इस लाल के मूल्य को समझा है और अभिनन्दन करने का निर्णय लिया है. हार्दिक प्रसन्नता का विषय है। वे इसी प्रकार जिन शासन धर्म साहित्य तथा समाज की सदा सेवा करते रहें, यही मंगल कामना है। -मुनि रूपचन्द्र श्री नाहटाजी जैन समाज के गणमान्य विद्वान सज्जन हैं, ऐसे विद्वज्जन का अभिनन्दन व बहुमान करके वस्तुतः आप विद्वता एवं पाण्डित्य का ही अभिनन्दन कर रहे हैं। मुनि शीलचन्द्र विजय वैसे तो नाहटा परिवार और खासकर श्री अगरचन्दजी नाहटा से मैं बचपन से ही बीकानेर में जब सेठिया विद्यालय में पढ़ता था, तभी से परिचित था परन्तु उनके निकट सम्पर्क में आने का अवसर सन् १९५३ में जब मेरा बीकानेर चातुर्मास था, तभी से मिला। उनके भतीजे श्री भंवरलालजी नाहटा से प्रथम परिचय कलकत्ता में हुआ जब वे जीवदया प्रकरण का हिन्दी पद्य-गद्यानुवाद कर रहे थे । मेरा चातुर्मास मुनि श्री संतवालजी के साथ कलकत्ता शहर में था । बहुत ही विनम्रनाव से वे प्राकृत पद्यों का अर्थ पूछते, स्वयं-स्फुरणा से उन उन पद्यों का उपर्युक्त अर्थ लगाते । मैंने देखा कि उनकी बौद्धिक चेतना प्राकृत पद्यों का अर्थ लगाने में कितनी पैनो थी । बहुधा वे स्वयं कहा करते हैं, मैं विशेष पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, किन्तु जब उनकी प्रखर और स्वयं स्फूर्त बौद्धिक प्रतिमा देखते हैं, तव आश्चर्यमुग्ध होना पड़ता है। · सन् १९७५ में होली के अवसर पर हम शिखरजी (मधुवन) आए हुए थे और कलकत्ता चातुर्मास के लिये जा रहे थे। ६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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