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________________ शान्तिलाल भारद्वाज 'राकेश' : मेवाड़ में रचित जैन-साहित्य : ८६३ wwwwwwwwwwwwww वचन युक्तियुक्त होता है वही ग्रहण करने योग्य है.' आचार्य हरिभद्र की इन प्रगतिशील मान्यताओं ने जैनधर्म के आन्दोलन का बड़ा हित किया और यह सिद्ध है कि उन स्वय ने विपुल साहित्य की रचना की. उनका स्वर्गवास वि० सं० ५८५ में लिखा पाया गया है लेकिन मुनि जिनविजय जी ने उनका समय वि० सं० ५५७ से ८२७ का माना है और डा० हर्मन याकोबी ने भी इसी मत का समर्थन किया है. 'समराइच्च कहा' हरिभद्र की अमर कृति है. 'धूर्ताख्यान' को भारतीय साहित्य में अपने ढंग की मौलिक ग्रंथ पद्धति का एक उत्तम उदाहरण माना गया है. जिनवल्लभसूरि-बारहवीं शताब्दी में आचार्य जिनवल्लभसूरि ने चित्तौड़ में कई वर्ष रहकर विधिमार्ग का प्रचार किया. उनके विधिमार्ग ने चैत्यवासियों को बड़ी शक्तिशाली चुनौती दी. वे छन्द, काव्य, दर्शन और ज्योतिष के विद्वान थे. कवि, साहित्यकार और ग्रन्थकार के रूप में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है. चित्तौड़ ही जिनवल्लभसूरि के प्रभाव का उद्गम और केन्द्रस्थान बना. संघपट्टक और धर्मशिक्षा---इन दो रचनाओं को श्री जिनवल्लभसूरि ने स्वप्रतिष्ठित महावीर स्वामी के मंदिर (चित्तौड़) में सं० ११६४ में शिलालेखों में अंकित करवाया. जिनवल्लभसूरि सं० ११६६ में आचार्य पद को प्राप्त हुये. चित्तौड़ का गौरव-इतिहास और पुरातत्त्व की दृष्टि से चित्तौड़ तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र (माध्यमिका) का बड़ा महत्त्व है. पातञ्जलि-कालीन भारत (डा० प्रभुदयाल अग्निहोत्री) में जिस माध्यमिका नगरी का उल्लेख मिलता है वह चित्तौड़ के समीप थी. ई० पू० द्वितीय शताब्दी में मिनाण्डर ने साकेत और माध्यमिका पर आक्रमण किया था. डा० भण्डारकर के मतानुसार पुष्यमित्र ने साकेत और माध्यमिका की विजय के बाद ही पहला अश्वमेध यज्ञ किया. चन्द्रभाषा और सिन्ध के मध्यवर्ती देश का नाम शैव देश था जिसकी राजधानी शिवपुर या शिविपुर थी. शिवियों में कुछ लोग अपना प्रदेश छोड़कर उत्तर पंजाब और राजपूताना में चले आये. एक दूसरी शाखा राजपूताना में चित्तौड़ के पास जा बसी. यहां इनकी राजधानी चेतपुर थी, यह स्थान चित्तौड़ से ११ मील उत्तर में है और यही पातंजलि की माध्यमिका है. माध्यमिका-माध्यमिका को नगरी नाम से भी जाना जाता है. यह नगरी वही है जिसका उल्लेख 'अरुणदयवनोमाध्यमिकाम्' इत्यादि के रूप में पातञ्जलि के महाभाष्य में मिलता है. यह शिवि जनपद की राजधानी थी. इसी माध्यमिका के नाम पर जैन श्वेताम्बर संप्रदाय के एक मुनि-संघ की पुरातनकाल में एक शाखा प्रसिद्ध हुई जिसका उल्लेख कल्पसूत्र की स्थविरावली में 'मज्झिमा साहा (माध्यमिका शाखा) के रूप में मिलता है. इसी स्थान पर ऐतिहासिक महत्त्व के अनेक प्राचीन सिक्के मिले हैं. किंवदंतियों के अनुसार इस नगरी के भग्नावशेषों की ईंटें महाभारत कालीन बताई जाती हैं. यह नगरी आज से २००० वर्ष से भी पूर्व के बौद्ध व जैनधर्म के प्रादुर्भाव का इतिहास अपने साथ जोड़े हुये है. शैव, शाक्त और वैष्णव के अतिरिक्त यह स्थान जैनियों और बौद्धों के धर्मप्रचार का भी प्रमुख केन्द्र रहा है . चित्तौड़ जैनाचार्यों के आचार्यत्व का दीक्षास्थल भी रहा है. जिनदत्तसूरि आचार्य जिनवल्लभसूरि के उपरांत उन्हीं के पट्टधर श्री जिनदत्तसूरि का नाम प्रमुख रूप से आता है. इनका कार्यक्षेत्र १. हरिभद्रसूरि-ईश्वरलाल जैन (जैन सत्यप्रकाश). ** * *** *** ** * ** * . . . . . . . . . . . ... . .. . . . JainEQUENot . . . . . i . . . . rora . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . " .. . . . . . rary.org . . . . . . . . . . . . . . . .IT . . T . .
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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