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________________ wwwww~~~~~~~ ८६० : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय स्थिति ऐसी भी आई कि जैन मंदिर- साहित्य- जैनाचार्य और श्रावक, बस इसी दुनिया में यह धार्मिक आन्दोलन चलता रहा और धीरे-धीरे जन-जीवन से हटकर जैन साहित्य एक दिन अनुसन्धान की वस्तु बन गया. Jain Education mat चेतना का साहित्य – किस धर्म के संतों की परम्परा साहित्य-सृजन से इतनी बंधी रही है ? परलोक होता हो चाहे न होता हो, इहलोक के कल्याण के लिए भी वे निरन्तर साहित्य का अमृत पिलाते रहे और विष के आकर्षण में न फंसने की सदैव बेतावनी देते रहे. भाषा के माध्यम का यह प्रगतिशील दृष्टिकोण धार्मिक सिद्धान्तों की प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से भी सार्थक रहा, उसने युग यथार्थ के इतिहास के साथ भी न्याय किया और सिद्धान्तरूप में उसने स्वयं अपने भीतर विकास की भी प्रबल सम्भावना छोड़ी. इसीलिए आज का एक दिन ऐसा भी आया जहां जैन साहित्य अपना सर्वस्व स्थापित कर चुका है. जायसी और स्वयंभू - आज हिन्दी साहित्य की परम्परा का इतिहास खोजने जाते हैं तो प्राकृत अपभ्रंश के युगों में जैन साहित्य का गौरव ही हमारा हाथ थांमता है और तब यह प्रश्न उठता है कि सूफी जायसी जब हमारे लिए पठनीय हो सकता है तो जैन स्वयंभू हमारे लिए पठनीय क्यों नहीं हो सकता ? धार्मिक प्रतिस्पर्धा की जड़ें दिनोंदिन सूखती जा रही हैं और जैन साहित्य के विशद अनुसंधान की प्रवृत्ति आज तो एक आन्दोलन का रूप ले चुकी है. अध्यात्मलक्षी दर्शन – भारतीय दर्शन अध्यात्मलक्षी है. इसमें पश्चिम के दर्शन की भाँति बुद्धि को प्रधानता नहीं दी गई है. यहाँ आत्मतत्त्व की शुद्धि प्रधान है, और भारतीय दर्शन का यही मूल संस्कार भारतीय धर्म और समाज की व्यवस्थाओं को प्रतिक्षण प्रभावित करता रहा है. श्रद्धा ज्ञान और क्रिया को जैनशास्त्रों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के नाम से जाना गया है लेकिन आस्था- विवेक और सक्रियता - इन्हें अपना लेने से जीवन का विविध सूत्रों को जोड़ पाने का सदैव प्रयत्न करता रहा है. साधना के सोपान अगर पूरे नहीं तो लगभग समान हैं. प्रशस्त पथ खुलता है और जैन साहित्य भी सिद्धि के इन जैन दर्शन कहता है कि आत्मा और सच्चिदानन्द सत्य है. इसमें अशुद्धि, विकार, दुःखरूपता, अज्ञान और मोह के कारण होती है. जैनदर्शन एक ओर विवेकशक्ति को विकसित करने की बात कहता है तो दूसरी ओर वह रागद्वेष के संस्कारों को नष्ट करने को कहता है. वहाँ अविवेक और मोह ही संसार हैं या उसके कारण हैं. जैन - साहित्य लोकजीवन को उन्नत और चारित्रशील बनाने वाली विशिष्ट धर्म है लेकिन किसी भी धर्म या देश के लोग उसका पालन ऐसी हैं जो सभी के लिए आवश्यक हैं और रहेंगी. जैन साहित्य विशाल है. प्राकृत संस्कृत और देशभाषा साहित्य के नामकरण की तिथि से लेकर आज तक की गत सभी शताब्दियों में प्रतिष्ठित और लोकमान्य भाषाओं में साहित्य-रचना का श्रेय जैन साहित्यकारों को है तमिल, तेलगु, कन्नड़, हिन्दी, मराठी, गुजराती, बंगला और राजस्थानी – विभिन्न भारतीय भाषाओं में जैन साहित्य रचा गया है. जैन साहित्य के विकास-यथ में अनेक संत साहित्यकारों और आचायों का योग मिला है. ** 'पउमचरिउ' के रचयिता श्री विमलसूरि, 'हरिवंश पुराण' के आचार्य जिनसेन, 'पाण्डवचरित' के देवप्रभसूरि, 'त्रिशष्ठिशलाका पुरुष चरित' के जैनाचार्य हेमचन्द्र, 'जम्बूस्वामिचरित' के महाकवि वीर, 'रंभामंजरी' के नयचन्द्र, 'भविस्सयत्त कहा' के धनपाल, अपभ्रंश के वाल्मीकि महाकवि स्वयंभू, धूर्तस्थान' के श्री हरिभद्रसूरि 'बृहत्कथाकोष' के श्री हरिषेण जैसे अनेक दिग्गज रचनाकारों की सृष्टि का यह विशाल वाङ्मय अपने सुदृढ़ अस्तित्व को स्वतः प्रमाणित कर रहा है. ४. जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन श्रीदलसुख, मालवणिया . नैतिक शिक्षा का वाङ्मय है. कहने को वह एक कर सकते हैं. अर्थात् उसकी कई मूल मान्यताएँ *** * *** ** ary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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