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________________ श्रीभवरलाल नाहटा : एक जैनेतर संत कृत जंबूचरित्र : ८७१ भगवान् महावीर के पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी के शिष्य थे, राजगृह नगर के श्रेष्ठी ऋषभदत्त की पत्नी धारिणी की कुक्षि से उनका जन्म हुआ. १६ वर्ष तक घर में रहे, फिर सुधर्मा स्वामी की देशना सुन कर वैराग्यवासित हुए और दीक्षा लेने का विचार किया. एक समृद्धिशाली सेठ के घर में जन्म लेने से, दीक्षा से पहले ही अन्य धनी सेठों की ८ कन्याओं से उनका वैवाहिक सम्बन्ध निश्चित हो चुका था. माता आदि कुटुम्बियों ने विचार किया कि किसी प्रकार उनका विवाह कर दिया जाय तो वे सांसारिक विषयों में मग्न हो जायेंगे. पर जम्बूकुमार का वैराग्य दृढ था, इसलिए उन्होंने कुटुम्बी जनों के अनुरोध से उन आठों कन्याओं से विवाह तो कर लिया पर विवाह से पूर्व उन्होंने उन कन्याओं के पिताओं को स्पष्ट सूचित कर दिया कि मैं दीक्षित होने वाला हं. विवाह की प्रथम रात्रि में ही उन्होंने अपनी आठों स्त्रियों को प्रतिबोध देकर सहयोगी बना लिया और साथ ही विवाह में जो ६६ करोड़ का धन आया था उसे चुराने के लिए ५०० चोरों के साथ आए हुए प्रभव चोर को भी उनके उपदेश ने प्रभावित किया. इस तरह माता, पिता, स्त्रियों, सास-ससुरों व प्रभवादि ५०० चोरों के साथ उन्होंने सुधर्मा स्वामी से दीक्षा ग्रहण की. वही राजपुत्र प्रभव आगे चल कर उनका प्रधान पट्टशिष्य बना. २० वर्ष तक जम्बू स्वामी छद्मस्थ अवस्था में रहे. तदनन्तर केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ और ४४ वर्षों तक केवली अवस्था में विचरे. भगवान् महावीर के निर्वाण के ६४ वर्ष बाद ८० वर्ष की आयु में वे मोक्ष सिधारे. इनके बाद इस भरतक्षेत्र से पंचम काल में कोई मोक्ष नहीं गया. इससे वे अन्तिम केवली कहलाये. वास्तव में वर्तमान जैन आगमों के निर्माण में जम्बू स्वामी का प्रधान हाथ रहा है. भगवान् महावीर ने तीर्थकर के रूप में ३० वर्ष तक जो भी उपदेश दिया उसे १२ अंगसूत्रों में प्रथित करने का काम गणधरों ने किया. महावीर निर्वाण के दिन ही गौतम स्वामी को केवल ज्ञान हो गया. यद्यपि वे इसके बाद १२ वर्ष तक और रहे पर संघ के संचालन का भार सुधर्मास्वामी ने ही संभाला और उन्होंने ही जम्बू स्वामी को संबोधित करते हुए वर्तमान आगमों की रचना की. फलत: उन आगमों के प्रारम्भ में सुधर्मा स्वामी के मुख से यह कहलाया गया है कि हे जम्बू ! इस आगम की वाणी भगवान् महावीर से जिस रूप में सुनी, तुमें कहता हूँ ! जम्बू स्वामी का निर्वाण मथुरा में हुआ और उनके ५०० से अधिक स्तूप सम्राट अकबर के समय तक मथुरा में विद्यमान थे. उनके जीर्णोद्धार का वर्णन दिगम्बर विद्वान कवि राजमल्ल ने अपने संस्कृत जम्बूचरित्र में किया है. प्रस्तुत संत कवि तुलसी रचित जम्बूसर प्रसंग में जैनधर्म, सुधर्मा स्वामी, उनसे दीक्षा लेने आदि का उल्लेख नहीं किया है. प्रारम्भिक विवाह के अनन्तर स्त्रियों से वार्तालाप और चोर का आगमन, सबको प्रतिबोध तथा ब्रह्मचर्य में जम्बू स्वामी के दृढ रहने का वर्णन ही कवि ने किया है. कई दृष्टान्तों का तो नाम निर्देश मात्र किया है पर अठारह नातों वाला सम्बन्ध कुछ विस्तार से दिया है, जो वसुदेव हिण्डी में ही सबसे पहले मिलता है. संत कवि तुलसी ने किसी मौखिक कथा को सुन कर ही अपने ढंग से इस कथा की रचना की है. जम्बू के नाम की जगह कवि ने जम्बूसर नाम का प्रयोग किया है. हमें संत कवियों की अन्य रचनाओं में भी जैन सम्बन्धी खोज करनी चाहिए. जम्बूसर प्रसंग वर्णन दहा शील व्रत की का कहू, महिमा कही न जाइ । ज्यूं गजराज के संग तें, अनल न परहीं आइ ॥१॥ ब्रह्मा विष्णु महेश लौं, कर शील की सेव । शील पूज्य तिहुँ लोक में, कोई लहै शील का भेव ॥२॥ भेव लहै सो यह' लहै, जंबूसर ज्यूं जानि । सिष ताको प्रसंग अब, कहूं स निहचै मानि ।।३।। १. यू गहै. D RATEAMIND Jane ENESENIAUSOSESINONENANERONadia Nasad
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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