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________________ ८६२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय wwwwwwwwwww बांचे सब पोथी के बोल, तब मन में यह उठी कलोल, एक झूठ जो बोले कोई, नरक जाइ दुख देख सोइ । मैं तो कल्पित वचन अनेक, कहे झूठ सब साँच न एक, कैसे बने हमारी बात, भई बुद्धि यह आकसमात । यह कहि देखन लाग्यो नदी, पोथो डार दइ ज्यों रदी, तिस दिन सो बानारसी, करै धर्म की चाह । तजी आसिकी फासिखी, पकरी कुल की राह ।। वैसे ही रत्नावली के सांसारिक श्रृंगार में उलझा और मदमाता तुलसी व्यावहारिक अध्यात्म में पड़ गया. श्रीकृष्ण के श्रृंगार में भी उन्होंने अध्यात्म-रहस्य खोजा. सूफी मत के मुसलमान हिन्दी कवियों के बारे में तो यह बड़ी विचित्रता रही है कि प्रगाढ़ शृंगार का वर्णन करते हुए भी वे आध्यात्म खोज रहे हैं. मलिक मोहम्मद जायसी रचित 'पद्मावत' इसका ज्वलंत उदाहरण है. उसमें पद्मावती रानी-स्त्री नायिका में उन्होंने 'इष्टदेवता' की स्थापना की है. अलाउद्दीन आदि 'इष्टदेवता' से दूर करने का प्रयत्न करते हैं. परन्तु 'गोराबादल' सद्गुणों की सहायता से आत्मदेव भीमसिंह इष्टप्राप्ति में समर्थ होते हैं. जायसी का 'माहिका हंसेसि कोहरिहि' उनकी अटूट ईश्वर-भक्ति का परम परिचायक है. अपनी स्वाभाविक शैली से गंभीर रहस्यों का उद्घाटन करते हुए उन्होंने सांसारिक प्रेम का दिग्दर्शन कराया है. एक कवि ने केवल शृंगार पर लिख अपनी कलम पर कलंक लगाने वाले कवियों को 'कुकवि' कह उनकी खूब निंदा की है. 'कला के लिए कला' का इससे बढ़ कर समर्थ विरोध और किस भाषाप्रणाली का हो सकता है ? यथा राग उदय जग अंध भयो, सहजे सब लोकन लाज गंवाई। सीख बिना नर सीख रहे, वनिता-सुख-सेवन की चतुराई । तापर और रचे रस काव्य, कहा कहिये तिनको निठुराई ।। अन्ध असूझन की अंखिया महं, मेलत हैं रज राम दुहाई । कंचन कुम्भन की उपमा कहि, देत उरोजन को कवि वारे । ऊपर श्याम विलोकत के मणि, नीलम की ढकनी ढक छारै। यों सत बैन कहैं न कुपण्डित, ये युग आमिष पिण्ड उधारे । साधुन डार दई मुंह छार, भए इस हेत किन्धौं कुछ कारे । इसी प्रसंग में इस कवि श्रेष्ठ ने कविनिर्माता विधाता पर कटुतम कटाक्ष किया है. वे लिखते हैं : हे विधि ! भूल भई तुमते, समझे न कहां कस्तूरी बनाई। दीन कुरंगन के तन में, तिन दंत धरे करुणा नहीं आई। क्यों न करी तिन जीभन जे रस-काव्य करें पर को दुखदाई । साधु अनुग्रह दुर्जन दंड दोऊ सधते; बिसरी चतुराई । ध्वनित रूप से सभी हिन्दी कवियों ने 'अध्यात्म' पुरस्सर सद्भावना से प्रेरित हो अपनी काव्यकला का परिचय दिया है. सतसई में किशोरियों के केश, कटि, वेणी, भौंह, नयन, नासिका, अधर, कपोल, वस्त्राभूषण आदि का वर्णन करने वाला महाशृंगारी बिहारी भी इसे न भूला और (शायद अपनी पूर्वकृत गल्ती को विचार कर ही) उन्होंने सतसई के अंतिम भाग में 'गम्भीर घाव करने वाले' आध्यात्मिक छंदों का निर्माण किया, यथा को छूटयो इहि जाल परि कत कुरंग अकुलात । ज्यों-ज्यों सुरझि भज्यो चहति, त्यों-त्यों उरझत जात । CON बाघNENINNINNINNINNINANINNINNIN _Jain Educationinten For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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