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________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ३१ wwwwwwwwwwww श्रोता सुनहु सुजांन तुम, नायक कहत जताय । वीर धीर बिन छैल ता नायकता नहीं पाय ।।३।। अन्त भाग चरन कमल नगधरन के रहो सदा मो सीस । राजसिंघ करि बीनती मागत है ब्रज ईस ।। ब्रजविलास रन रंग को दीजै दृग हिय ध्यांन । जुगल सरूप अनूप छवि सुन्दर परम सुजांन ।। सरस रीति गिरिवर पुहमी, तरवर सघन तमाल । षरितु छाकै प्रेम रस रसमय जुगल रसाल ।। गुन बरनन गोपाल कै रसमय बीर सिंगार । चित चंचल निहचल करहु समुभी यह सुषकार ।। स्फुट भक्तिभूलक पद-राजसिंह कवित्व-प्रतिभा से मण्डित राजवी थे, एक ओर इनकी जहाँ स्वतन्त्र कृतियां मिलती हैं, तो दूसरी ओर कृष्णभक्तिमूलक स्फुट पद भी पाये जाते हैं. ३१ पद तो एक ही गुटके में प्रतिलिपित हैं. जन्माष्टमी विजयादशमी, फूलडोल, होली, नृसिंह चतुर्दशी, दीपावली, राधाष्टमी, राम नवमी और गोवर्द्धन आदि प्रसंगों को लक्षित कर इन पदों की रचना की गई है. इनकी प्रतिभा को देखते हुए पता चलता है कि और पद होने चाहिएं. उपलब्ध पदसंग्रह से एक पद उद्धृत किया जा रहा है. चन्द ते इत गोकुल चन्दहि प्रगटत होड़ परी उतहि चकोरी इतकों गौरी तन मन लखि बिसरी उतकों भोगी इत ऋषि योगी महा मोद मन माने उत दै अमृत इत पंचामृत लखो प्रगट नहि छान उत दुजराज इतै ब्रजराजा दोऊ सुर राज सुहाई पाप कर्म वे धर्म कर्म ये निगम पुरानन गाई गोपी बाल तहाँ सब बालक दूध दही विस्तारे राजसिंह प्रभु बजकी जीवन भक्ति जगत निस्तारे जिस गुटके में महाराजा राजसिंह की कृतियां प्रतिलिपित हैं उसमें सं० १७८७ की लिखी “राजा पंचक कथा' भी आलेखित है. पर उसमें कर्ता का नाम नहीं है. केवल हाशिये पर “महाराजि राजसिंह क्रत कथा" उल्लेख है. जबतक इनकी दूसरी नामवाली प्रति नहीं मिल जाती तबतक इसे राजसिंह कृत मानना युक्ति संगत नहीं. इस कृति में पांच प्रकार के---धर्मपाल, सिद्ध सुभट, धनसंचय, नारी कवच और अधम राजाओं की प्रकृति का वर्णन है, कथाओं का विस्तार औपदेशिक शैली का परिचायक है. राजाओं को प्रजा का पालन किस प्रकार करना चाहिए और किन-किन परिस्थितियों में राजा को क्या-क्या कदम उठाने चाहिये आदि बातों का विस्तार है. भक्ति का पुट इतना लगा है जैसे कोई भक्तिमूलक रचना ही हो. विद्वानों से अनुरोध है कि इसकी और प्रति कहीं उपलब्ध हो तो प्रकाश डालें १. इसका विवरण इस प्रकार हैआदि भाग दोहा श्रीगुरु गनपति सारदा सदा सहाय गुपाल । दास भावसौं हरि भजे तिनके प्रभु प्रतिपाल ।।१।। WITH Jain Edu Non int forary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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