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________________ ८२८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय कीरति तेहनी विजय हुवइ घणउं सहजइ ह सौभाग । साधु तणां गुण गावइ जे सदां मनमई आणी राग ।। संवत सतरई सइंतीसे समइ माह पांचमी गुरुवार । सुकुलपक्ष श्रीकीशनगढ़ रच्यउ चरित भलउ सुषकार ।। इति श्री दानाधिकारे श्रीधर्मदत्त चतुःपदी समाप्ता ।। संवत १७३८ वर्षे श्रावणमासे कृष्णपक्षे दशम्यां तिथौ उपाध्याय श्रीप्रीतिविजय गणि तत्शिष्य पंडितप्रवर प्रीतिसुंदरमुनि सहितेन प्रीतिलाभेनाले खि, श्रीकृष्णगढ़ मध्ये, लेखक पाठकयोरिति ।। (अन्य हस्ताक्षरों से) श्रीबृहत्खरतरगच्छाधिपति भट्टारक श्रीजिन राजसूरिराजपट्टोदयाचल सहस्रकिरणावतार भट्टारक जिनरंगसूरि विरचिता श्री धवलचन्द्र भूपाल श्रेष्ठि धर्मदत्तचुतःपदी संपूर्णा जाता सा वाच्यमाना ज्ञानफलदा भवतु । श्रेयः सदा भूयात् ॥ -पत्र सं० ४६. किशनगढ़-राज-परिवार को हिन्दी साहित्य सेवा महाराजा किशनसिंहजी ने सं० १६६६ में किशनगढ़ बसाया था. प्रारम्भ से ही राज-परिवार का संबंध वल्लभकुल से रहा है. कहा जाता है कि वल्लभाचार्य का मूल चित्र आज भी किशनगढ़ के दुर्गस्थित मंदिर में श्रद्धा-केन्द्र बना हुआ है. संगीत, साहित्य और कला के उन्नयन में राज-परिवार का उल्लेखनीय सहयोग रहा है. कृष्णभक्ति का प्राबल्य होने से यहां एक समय उच्चकोटि के कवियों और विद्वानों का खासा जमघट था. नरेश स्वयं केवल साहित्य और कला के पारखी ही नहीं, अपितु कवि, विद्वान् और चित्रकार भी थे. हिन्दी भाषा के माध्यम से यहाँ के राज-परिवार ने कृष्णभक्तिपरक साहित्य प्रचुर परिमाण में रचा-रचवाया, जिसका समुचित मूल्यांकन आजतक नहीं हो पाया है. सच कहा जाय तो जिस नरेश या महारानी का साहित्य बाहर गया उससे तो तात्कालिक विद्वनमंडली प्रभावित हुई, पर जिनकी कृतियां राज-परिवार तक ही सीमित रहीं उनका उल्लेख अन्यत्र नहीं मिलता. अद्यतन प्रकाशित हिन्दी राजस्थानी भाषा और साहित्य के इतिहासों में जहाँ प्रसंगवश किशनगढ़ राज-परिवार की सांस्कृतिक सेवाओं का उल्लेख किया गया है वहां केवल राजसिंह, ब्रजदासी, नागरीदास-सांवतसिंह, बनीठनी, सुंदरकवरी और छत्रकुवरी को ही याद किया गया है. अन्य कवि-नरेशों का नाम तक नहीं है. मुझे अपनी गवेषणा के आधार पर कहना चाहिए कि जिन नरेशों की रचनाओं का उल्लेख सूचित कृतियों में किया गया है वह भी त्रुटिपूर्ण है. कारण कि इनकी अन्य रचनायें उपलब्ध हैं जिनका साहित्यिक दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व है. अज्ञात रचनाकारों के संबंध में किचित् भी न लिखे जाने का कारण यही जान पड़ता है कि ये अन्धकार में रहीं. नहीं कहा जा सकता कि ज्ञात से भी अभी और कितनी अज्ञात सामग्री दबी पड़ी होगी ! यहाँ पर किशनगढ़ीय राज-परिवार के उन व्यक्तियों की रचनाओं का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है जो ज्ञात साहित्यिक होते हुए भी जिनकी कृतियां अज्ञात हैं. अज्ञात कवि-नरेशों की रचनाओं पर विचार अपेक्षित है. ज्ञात रचनाकारों में महाराजा राजसिंह, ब्रजदासी आदि हैं और अज्ञात कवियों में रूपसिहजी, मानसिंहजी, बिड़ दसिंहजी, कल्याणसिंहजी, पृथ्वीसिंहजी, जवानसिंहजी, मदनसिंहजी और यज्ञनारायणसिंहजी प्रमुख हैं. किशनगढ़ के आश्रित कवियों में अभी तक हम केवल बद से ही परिचित रहे हैं, पर अन्वेषण करने पर विदित हुआ कि वहाँ और भी कवि रहा करते थे. जिसमें नानिंग भी एक थे. यदि तत्रस्थित राज्याश्रित कवियों पर विशद अनुशीलन किया जाय तो सरलतासे एक स्वतंत्र ग्रंथ ही बन सकता है. महाराजा रूपसिंहजी-(राज्यकाल सं० १७००-१५) इन पंक्तियों के लेखक के संग्रह में 'किशनगढ़ राज्य के महाराजाओं के बनाये हुए पद संग्रह' की एक पाण्डुलिपि १. बहुत कम विक्ष जानते हैं कि नागरोदासजी-सवितसिंह जी भक्त होने के साथ कुशल चित्रकार भी थे. - HTAX ININNAININNINITENINNINNI ammemorary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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