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________________ प्रो. देवेन्द्रकुमार जैन एम० ए०, पी-एच० डी०, शास्त्री, रायपुर अपभ्रंश जैन-साहित्य अपभ्रंश भाषा और साहित्य दोनों का अत्यन्त महत्त्व है. भाषा-विकास की दृष्टि से अपभ्रश मध्य भारतीय आर्यभाषाओं की अंतिम अवस्था का नाम है. प्राकृत की अपेक्षा यह भाषा मधुर है. राजशेखर ने संस्कृत-बन्ध को कठोर कहा है और प्राकृत को सुकुमार, लेकिन विद्यापति देशवचन को 'सबजन-मिट्ठा' कहते हैं. अपभ्रंश देशी भाषा के अधिक निकट है.' महाकवि स्वयम्भू ने इसे ग्रामीण भाषा कहा है. साधारणतः यह कहा जा सकता है कि मध्यभारतीय आर्यभाषाओं की मध्य भूमिका तथा नव्य भारतीय आर्य भाषाओं की आदिम भूमिका के मध्य का रूप अपभ्रंश है. मुख्य रूप से यह पश्चिमी भाषा है. राजशेखर ने भी इसका संकेत किया है. उसने लिखा है कि उत्तर के कवि संरकृतप्रेमी हैं. मरुभूमि (मारवाड) राजपूताना और पंजाब के कवि अपभ्रंश में अधिक रुचि रखते हैं, अवन्ति, दशपुर और पारयात्र के कवि भूतभाषा-प्रेमी होते हैं. किन्तु मध्यदेश के कवि सभी भाषाओं में रुचि रखते हैं. यही नहीं, उसने इस बात पर भी बल दिया है कि संस्कृत, प्राकृत कवियों के बाद ही राजदरबार में अपभ्रश कवियों को पश्चिम दिशा में स्थान दिया जाय. भाषागत साम्य के आधार पर पंजाबी, सिंधी और जूनी राजस्थानी के सम्बन्ध में यह कथन ठीक माना जा सकता है. प्राकत में जैन और बौद्ध साहित्य ही प्रमुख है. अपभ्रश का अधिकांश साहित्य जैन साहित्य है. सन्देश-रासक तथा सिद्धसाहित्य (बौद्ध चर्यापद, गीति और दोहा) को छोड़कर लगभग समूचा वाङ्मय जैन शाहित्य है. अपभ्रंश साहित्य हिंदी साहित्य से न्यून नहीं है. हिन्दीसाहित्य के आदि काल की अनेक रचनायें अपभ्रश की गिनाई जाती हैं. केवल इतना ही नहीं, श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी इसे 'पुरानी हिन्दी' नाम देते हैं. गुजराती इसे 'जूनी गुजराती' और राजस्थानी 'पुरानी राजस्थानी' कहकर पुकारते हैं. इससे भी अपभ्रश की सामान्य आधार-भूमिका का पता लगता है. हिंदी के भक्ति और रीति काल के साहित्य से अपभ्रश साहित्य अधिक विस्तृत है. साहित्यिक दृष्टि से भी इसका विशेष स्थान है. हिंदी साहित्य की अनेक प्रवृत्तियां अपभ्रश-युग की देन हैं. छंदों की विविधता, रचना-शैली, परम्परागत काव्यात्मक वर्णन, साहित्यिक रूढ़ियों का निर्वाह, लौकिक और शास्त्रीय शैलियों का समन्वय, वस्तु विधान, प्रकृति-चित्रण, रसात्मकता, भक्ति और श्रृंगार का पुट आदि प्रवृत्तियां अपभ्रंश-साहित्य से ही परम्परागत रूप में हिंदी साहित्य को प्राप्त हुई हैं.४ उपलब्ध अपभ्रश जैन साहित्य में प्रबन्धकाव्यों की संख्या अधिक नहीं है. फिर भी हिंदी प्रबंधकाव्यों से अपभ्रश प्रबन्धकाव्य १. स्वयम्भू-पउमचरिउ प्रथम भाग, १,२. २. स्वयम्भू-पउमचरिउ प्रथम भाग, १, ३. ३. देखिए, काव्यमीमांसा दशम अध्याय. ४. देखिये 'मेरा लेख सन्देशरासक और हिन्दी काव्यधारा' सप्तसिन्धु अप्रैल ६० का अंक. SINISERSLENESENJSONBREINONENSINANONS
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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