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________________ हे www नेमिचन्द्र शास्त्री : संस्कृत कोषसाहित्य को प्राचार्य हेम की अपूर्व देन : ८०१ १४. नियतं द्रान्तीन्द्रियाणि अस्यां निद्रा २।२२७-जिसमें निश्चित रूप से इन्द्रियों को श्रान्ति-विश्राम मिले, वह निद्रा है. १५. पण्डते जानाति इति पण्डितः, पण्डा बुद्धिः संजाता अस्येति ३।५--जो हिताहित को जानता है अथवा जिसमें विवेक-बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, वह पण्डित है. १६. छ्यति छिनत्ति मूर्खदुष्टवित्तानि इति छेकः । विशेषेण मूर्खचित्तं दहति इति. १७. विदग्धः ३।७ जो मूर्ख की मूर्खता को दूर करता है, वह छेक है और जो विशेषरूप से मूर्खता को जलाता है, नष्ट करता है, वह विदग्ध है. १८. वाति गच्छति नरं वामा यद्वा विपरीतलक्षणया शृंगारिखेदनाद्वा ३।१६८-जो नर-पुरुष को प्राप्त हो अथवा विपरीत लक्षणा के द्वारा जो शृंगार द्वारा खेद को प्राप्त करे अर्थात् जो काम-संभोगादि में प्रवीण हो, उसे वामा कहते हैं. १६. विगतो धवो भर्ता अस्याः विधवा ३।१९४—जिसके पति का स्वर्गवास हो गया है अथवा जिसके सुख-काम-भोग के दिन व्यतीत हो गये हों, वह विधवा है. २०. दधते बलिष्ठतां दधि ३।७०---जो बल उत्पन्न करता है अथवा जिस के सेवन से बल प्राप्त होता है, वह दधि है. २१. येव्यते वेष्ठ्यते तृणपर्णादिभिरत्युटजः ४।६०-तिनके और पत्तों से जिसे छाया जाय, वह उटज है. २२. वेश्याऽऽचार्यः पीठमर्दः–वेश्याऽऽचार्यो वेश्यानां नत्तोध्यायः २१२४४–वेश्या को नृत्त सिखलाने वाला पीठमर्द है. नृत्त उस नाच को कहते हैं, जिसमें नर्तक न गाता है और न बजाता है, केवल मुद्रा-भाव-भंगिमाओं के द्वारा नृत्य प्रस्तुत करता है. अनेक पर्यायवाची शब्दों के बनाने का विधान :---आचार्य हेम ने भी धनञ्जय के समान शब्दयोग से अनेक पर्यायवाची शब्दों के बनाने का विधान किया है, किन्तु इस विधान में उन्हीं शब्दों को ग्रहण किया है, जो कविसम्प्रदाय द्वारा प्रचलित और प्रयुक्त हैं. जैसे पतिवाचक शब्दों में कान्ता, प्रियतमा, बधू, प्रणयिनी एवं निभा शब्दों को या इनके समान अन्य शब्दों को जोड़ देने से पत्नी के नाम और कलत्रवाचक शब्दों में वर, रमण, प्रणयी एवं प्रिय शब्दों को या इनके समान अन्य शब्दों को जोड़ देने से पतिवाचक शब्द बन जाते हैं. गौरी के पर्यायवाची बनाने के लिए शिव शब्द में उक्त शब्द जोड़ने पर शिवकान्ता, शिवप्रियतमा, शिवबधू एवं शिवप्रणयिनी आदि शब्द बनते हैं. निभा का समानार्थक परिग्रह भी है, किन्तु जिस प्रकार शिवकान्ता शब्द ग्रहण किया जाता है, उस प्रकार शिवपरिग्रह नहीं. यतः कविसम्प्रदाय में यह शब्द ग्रहण नहीं किया गया है. कलत्रवाची गौरी शब्द में वर, रमण, प्रभृति शब्द जोड़ने से गौरीवर, गौरीरमण, गौरीश आदि शिववाचक शब्द बनते हैं. जिस प्रकार गौरीवर शब्द शिव का वाचक है, उसी प्रकार गंगावर शब्द नहीं. यद्यपि कान्तावाची गंगा शब्द में वर शब्द जोड़ कर पतिवाची शब्द बन सकता है, तो भी कविसम्प्रदाय में इस शब्द की प्रसिद्धि न होने से यह शिव के अर्थ में ग्राह्य नहीं है. आचार्य हेम ने अपनी स्वोपज्ञवृत्ति में इन समस्त विशेषताओं को बतलाया है. अतः स्पष्ट है कि "कविरूढ्यासेयोदाहरणावलि' सिद्धान्तवाक्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. इसके कई सुन्दर निष्कर्ष निकलते हैं. कविसम्प्रदाय को परिगणित करने से अनेक दोषों से रक्षा हो गयी है. अतएव शिव के पर्याय कपाली के समानार्थक कपालपाल, कपालधन, कपालभुक्. कपालनेता एवं कपालपति जैसे अप्रयुक्त और अमान्य शब्दों के ग्रहण से भी रक्षा हो जाती है. यद्यपि व्याकरण द्वारा शब्दों की सिद्धि सर्वथा संभव है, पर कवियों की मान्यता के विपरीत होने से उक्त शब्दों को कपाली के स्थान पर ग्रहण नहीं किया जा सकता है. 3 ATMA IN JainEdCO Jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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