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________________ श्रीबहादुर चन्द छाबड़ा काहल शब्द के अर्थ पर विचार जैन और बौद्ध साहित्य के संस्कृत ग्रंथों में ऐसे अनेक शब्द मिलते हैं जिनके अर्थ के विषय में प्रायः प्रकाशित कोशों द्वारा उतना प्रकाश नहीं पड़ता जितना कि प्रचलित देशी भाषाओं से पड़ता है. ऐसे शब्दों में एक 'काहल' शब्द भी है. " प्रबन्धचिन्तामणि” सम्बद्ध पुरातन प्रबन्धसंग्रह में एक प्रसंग में इस शब्द का यूं प्रयोग मिलता है- 'मन्त्रिणा शङ्खस्य कथापितम् यत्त्वं बलवानसि क्षत्रियोऽसि, अहं वणिग्मात्रम् तत आवयोर्द्वन्द्वयुद्धमस्तु. सोऽत्यर्थं बलवान् हृष्टः सन् काहले मन्त्रिणा सह प्रहर २ अयाचत' - इत्यादि डा० साण्डेसरा तथा श्री० ठाकर इसका उल्लेख करते हुए काहल शब्द का अर्थ करते हैं रोक, उग (Tender, timid, cunning). साथ ही यह सुझाव देते हैं कि उक्त प्रसंग में अर्थ की दृष्टि से काहले के स्थान पर काहलेन पाठ होना चाहिए. हमारे विचार में यहां काहले पाठ ठीक ही प्रतीत होता है और इसका अर्थ होना चाहिए 'जल्दी में' 'अधीरता में' अथवा 'उतावलेपन में'. ध्यान रहे कि पंजाबी भाषा में यह शब्द आज भी प्रचलित है और बार-बार प्रयुक्त होता है. एक मुहावरा है-काल अग्ने टोए से कम किल्मों होए अर्थात् जल्दीपने के आगे गड्ढे ही गडे होते हैं तो काम क्योंकर संपन्न हो. वास्तव में काहल शब्द संज्ञापद भी है और विशेषण भी. काहलस्य भावः काहलम् पंजाबी में इसीको काल कहते हैं. विशेषण में पंजाबी में काह्न (पुंलिङ्ग) और काही (स्त्रीलिङ्ग) शब्द 'अधीर' 'उतावला' (ली) 'जल्दबाज' आदि अर्थों में अतिप्रसिद्ध है. पाइसद्दमहरणवो नामक जैन प्राकृत कोश में भी काहल शब्द पठित है और वहाँ इसके अर्थों में 'अधीर' अर्थ भी दिया हुआ है. साडेसरा और ठाकर महोदय इस कोश का उल्लेख करते अवश्य हैं, परन्तु वहाँ दिए काहल शब्द के 'अमीर' अथवा 'अधीरत्व' अर्थ को नहीं अपनाते. इधर चीवरवस्तु नामक बौद्ध ग्रंथ में भी काहल शब्द का सारगर्भित प्रयोग मिलता है. वैशाली में राजा बिम्बिसार और गणिका आम्रपाली के वार्तालाप में राजा कहता है 'किं निप्पलायें' ? तो गणिका उत्तर में कहती है— देव मा काहलो भव.” यहाँ भी चीवरवस्तु के सम्पादक डा० नलिनाक्षदत्त ने काहल शब्द का अर्थ निराश अथवा 'हताश' (Dejected) किया है, वह संगत नहीं प्रतीत होता. हमारे विचार में उक्त प्रसंग में भी काहल का अर्थ 'उतावला' अथवा 'अधीर' पंजाबी काला ही युक्तियुक्त लगता है. राजा कहता है तो दौड़ जाऊँ क्या ? गणिका उत्तर देती है-महाराजा, अधीर मत हो भो ! अर्थात् जल्दी क्या है, उतावले क्यों होते हो, इत्यादि. अन्त में हम विद्वानों का ध्यान पंजाबी की ओर विशेष रूप से आकर्षित करना चाहते हैं, इसलिए कि ऐसे विवादास्पद शब्दों के अर्थनिर्णय में जैसे हिंदी, गुजराती, मराठी आदि प्रचलित देशी भाषाएँ सहायक होती हैं वैसे ही पंजाबी भी अत्यन्त उपकारक सिद्ध हो सकती है. १. Lexicographical Studies in jaina Sanskrit' by B. J. Sandesara and J. P. Thaker, oriental Institute, Baroda, १६६२, १०१२०. २. Gilgit Manuscripts Vol III, part 2, edited by Dr. Nalinakshadutt, Srinagar, kashmir १६४२, पृ० २०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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