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________________ ७७० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय करने को मिलता है. नेमिराजुल के विवाह से सम्बन्धित प्रसंग ही इनकी रचनाओं का एवं पदों का मुख्य विषय है. एक पद देखिये: राग-देशाख सखि को मिलावो नेमि नरिंदा ।। ता बिन तन मन यौवन रजत है, चारु चंदन अरु चन्दा ।। सखि० ।। कानन भुवन मेरे जीया लागत, दुसह मदन को फंदा । तात मात अरु सजनी रजनी वे अति दुख को कन्दा । सखि० ॥ तुम तो संकर सुख के दाता, करम काट किये मंदा । रतनकीरति प्रभु परम दयालु सेवत अमर नरिंदा । सखि० ।। कुमुदचन्द्र की साहित्य-साधना अपने गुरु रत्नकीति से भी आगे बढ़ चुकी थी. ये बारडोली के जैन सन्त के नाम से प्रसिद्ध थे. इनकी अब तक कितनी ही रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं. इनकी बड़ी रचनाओं में आदिनाथ विवाहलो, नेमीश्वर हमची एवं भरतबाहुबलि छन्द हैं. शेष रचनायें पद, गीत एवं विनतिओं के रूप में हैं. इनके पद सजीव हैं. उनमें कवि की अन्तरात्मा के दर्शन होने लगते हैं. शब्दों का चयन एवं अर्थ की सरलता उनमें स्पष्ट नजर आती है. एक पद देखिये: मैं तो नरभव वादि गमायो, न कियो जप तप व्रत विधि सुन्दर, काम भलो न कमायो । मैं तो० ॥१॥ विकट लोभ तें कपट कूट करी, निपट विष लपटायो । विटल कुटिल शठ संगति बैठो, साधु निकट विघटायो । मैं तो० ॥२॥ कृपण भयो कछु दान न दीनो, दिन दिन दाम मिलायो । जब जोवन जंजाल पड्यो तब परत्रिया तनु चित लायो । मैं तो० ॥३॥ अंत समय कोउ संग न आवत झूठहिं पाप लगायो॥ कुमुदचन्द्र कहे चूक परी मोही प्रभु पद जस नहीं गायो । मैं तो० ॥४॥ इन भट्टारकों के शिष्य-प्रशिष्य भी साहित्य के परमसाधक थे और उनकी कितनी ही रचनायें उपलब्ध होती हैं. वास्तव में वह युग संतसाहित्य का युग था. इधर आमेर, अजमेर एवं नागौर में भी भट्टारकों की गादियाँ थीं और वहाँ के भट्टारक अपने-अपने क्षेत्रों में साहित्य एवं संस्कृति की जागृति के लिये विहार किया करते थे. दिल्ली के भट्टारकपट्ट से आमेर का सीधा सम्बन्ध था और वहीं से नागौर एवं ग्वालियर में भट्टारकों के स्वतन्त्र पट्ट स्थापित हुये थे. भ० सुरेन्द्रकीति [सं० १७२२] भ० जगत्कीति [सं० १७३३] एवं भ० देवेन्द्रकीति [सं० १७७०] का पट्टाभिषेक आमेर में ही हुआ था. ये सब जैन सन्त थे और साहित्य के सच्चे उपासक थे. आमेर शास्त्रभण्डार, नागौर एवं अजमेर के भट्टारकीय शास्त्रभण्डार इन्हीं भट्टारकों की साहित्य-सेवा का सच्चा स्वरूप हैं. संवत १८०० से आगे इन सन्तों में विद्वत्ता की कमी आने लगी. वे नवीन रचना करने के स्थान पर प्राचीन रचनाओं की प्रतियों को पुनः लिखवा कर भण्डारों में संग्रहीत करने में ही अधिक व्यस्त रहे. यह भी उनकी साहित्योपासना की एक सही दिशा थी जिसके कारण बहुत से ग्रंथों की प्रतियाँ हमें आज इन भण्डारों में सुरक्षित रूप में मिलती हैं. इस प्रकार राजस्थान के इन जैन सन्तों ने भारतीय साहित्य की जो अपूर्व एवं महती सेवा की वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में लिखने योग्य है. उनकी इस सेवा की जितनी अधिक प्रशंसा की जाएगी कम ही रहेगी. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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