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________________ Jain Education Inter डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल : राजस्थानी जैन संतों की साहित्य-साधना : ७६५ भवीण गुणि कंठि करो, एह अपूरव हार । घरि मंगल लक्ष्मी घणी, पुण्य तणो नहिं पार ||११|| भणि भणाति सांभलि, लिखि लिखावइ एह । देवेन्द्र कीर्ति गच्छती कहि, स्वर्ग मुक्ति लहि तेह | - भ० देवेन्द्र कीर्ति कृत प्रद्युम्नप्रबन्ध इसी तरह कवि सधारु ने तो ग्रंथ के पढ़ने पढ़ाने लिखने और लिखवाने का जो फल बतलाया है वह और भी आकर्षक है : पेहु चरितु जो कोह, सोनर स्वर्ग देवता हो । हलुवइ धर्म्म खपइ सो देव, मुकति वरंगणि मागइ एम्ब ॥ ६६७ ॥ जो फुणि सुइ मनह धरि भाउ, असुभ कर्म ते दूरि हि जाइ । देव परदवणु ॥ महागुण राथु | जोर वखाणइ माणुसु कवणु, तहि कहु तूसह अरु लिखि जो लिखियाबइ साधु, सो सुर होइ जोर पढाइ गुण किउ विलड, सो नर पावइ यहु चरिंतु पुंन भंडारू, जो वरु तहि परदमणु तुही फल, देह, संपति कंचण भलउ || ६६८ || पढइ सु नर मह सारु । पुत्रु अवरु जसु होई ॥७०० ॥ ग्रंथों की प्रतिलिपि करने में बड़ा परिश्रम करना पड़ता था. शुद्ध प्रतिलिपि करना, सुन्दर एवं सुवाच्य अक्षर लिखना एवं दिन भर कमर झुकाये ग्रंथलेखन का कार्य प्रत्येक के लिये संभव नहीं था. उसे तो सन्त एवं संयमी विद्वान् ही सम्पन्न कर सकते थे. इसलिये वे ग्रन्थ के अन्त में कभी-कभी उसकी सुरक्षा के लिये निम्न शब्दों में पाठकों का ध्यान आकर्षित किया करते थे. भग्नपृष्टि कटिग्रीवा, वक्रदृष्टिरधो मुखम् । क ेन लिखितं शास्त्रं वाले परिपालयेत् ॥ इन संतों के सुरक्षा के विशेष नियमों के कारण राजस्थान में ग्रंथों का एक विशाल संग्रह मिलता है. कितने ही ग्रंथसंग्रहालय तो अब भी ऐसे हैं जिनकी किसी भी विद्वान् द्वारा छानबीन नहीं की गई है. लेखक को राजस्थान के ग्रंथभण्डारों पर शोध निबन्ध लिखने के अवसर पर राजस्थान के १०० भी से अधिक भण्डारों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है. यदि मुस्लिमयुग में धर्मान्य शासकों द्वारा इस शास्त्र भण्डारों का विनाश नहीं किया जाता एवं हमारी ही लापरवाही से सैकड़ों हजारों ग्रंथ चूहों, दीमक एवं शीन से नष्ट नहीं होते तो पता नहीं आज कितनी अधिक संख्या में इन भण्डारों में ग्रंथ उपलब्ध होते ! फिर भी जो कुछ अवशिष्ट हैं उनका ही यदि विविध दृष्टियों से अध्ययन कर लिया जावे, उनकी सम्यक् रीति से ग्रंथसूचियां प्रकाशित कर दी जावें तथा प्रत्येक अध्ययनशील व्यक्ति के लिये वे सुलभ हो सकें वो हमारे आचार्यों, साधुओं एवं कवियों द्वारा की हुई साहित्य-साधना का वास्तविक उपयोग हो सकता है. जैस मेर, नागौर, बीकानेर,पुरू, आमेर, जयपुर, अजमेर, भरतपुर, कामा आदि स्थानों के संग्रहीत पंचभण्डारों की आधुनिक पद्धति से व्यवस्था होनी चाहिए. उन्हें रिसर्च केंद्र बना दिया जाना चाहिये जिससे प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानीय भाषा पर रिसर्च करने वाले विद्यार्थियों द्वारा उनका सही रूप से उपयोग किया जा सके. क्योंकि उक्त सभी भाषाओं में लिखित अधिकांश साहित्य राजस्थान के इन भण्डारों में उपलब्ध होता है. यदि ताडपत्र पर लिखी हुई प्राचीनतम प्रतियाँ जैसलमेर के ग्रंथ भण्डारों में संग्रहीत हैं तो कागज पर लिखी हुई संवत् १३१९ की सबसे प्राचीन प्रति जयपुर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत हैं. अभी कुछ वर्ष पूर्व जयपुर के एक भण्डार में हिन्दी की एक अत्यधिक प्राचीन कृति जिनदत्त चौपई ( रचना काल सं० १३५४) उपलब्ध हुई है जो हिन्दी भाषा की एक अनुपम कृति है. Tala Gorg
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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