SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वह मुनि श्री मिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : ४६ उन्होंने जिसको जो कह दिया वह वैसा ही हो गया, यदि किसी को यह कहा कि व्यापार में लाभ होगा तो निहाल हो गया. यही कारण है कि आज भी उनके स्वर्गवास स्थान पर सच्चे मन से खड़े होकर अगर कोई यह सोचता है कि मेरा यह कार्य हो जाना चाहिये तो वह हो जाता है. संक्षेप में उनकी वाणी से कहा गया प्रत्येक वचन जन-जन के लिये वरदान साबित होता था. वचनसिद्ध महात्मा पुरुष के रूप में वे अपने समय में बहुत प्रख्यात हुए. आपका जन्म सेठों की रीयां में सं० १८८२ कार्तिक शुक्ला 8 में हुआ था. माता-पिता का नाम क्रमशः श्रीनथमलजी भंडारी और पाना बाई था. आपने पूज्य श्रीकुशालचन्द्रजी म० द्वारा विक्रम सं० १८६१ में अपने जन्मस्थान रीयां में ही दीक्षा ग्रहण की थी. विक्रम सं० १९३६ वैसाख कृष्णा एकादशी को कुचामण में नश्वर देह का परित्याग कर अपने संयमीय जीवन का अन्तिम काम्य प्राप्त किया था: स्वामी श्रीचौथमलजी म० स्वामीजी की परिचय रेखा में उनको सीमित या अंकित करना असंभव है. वे नये युग की उजली रेखा को कल्पना की आंखों से भविष्यदृष्टा की तरह देखते थे. वे पुराने युग के सन्त कहलाते थे. साधुत्व की मर्यादा और सीमा रेखा में खड़े रहकर भी भविष्य में समाज को किस प्रकार के विचार आचार का प्रतिपादन प्रिय होगा, इसके उन्होंने बखूबी अपनी पद्य रचनाओं में संकेत दिये हैं. वे सुधारक भी प्रथम कोटि के थे. जड़ता या विचारशून्यता उन्हें कतई पसन्द नहीं थी. साधु समाज को भी उन्होंने पर्याप्त सतर्क और सबल सुधारात्मक विचार दिये. मारवाड़ प्रांत के अत्यंत निर्भीक सन्त थे. अपनी बात को सचोट शब्दों में कहना उनका स्वभाव था. उन्होंने साघुसमाज के सामने सबसे पहले यह विचार प्रस्तुत किये कि निवृत्तिप्रधान जैनमुनि आज जो काष्ठ के पात्र ग्रहण करते हैं, वे मकान और पानी उन्हें गिर्दोष नहीं मिलते हैं. जब उन्होंने ये और इस प्रकार के सतर्क अन्य विचार प्रस्तुत किये तो साधु समाज में काफी चर्चा रही. पर उनके सटीक प्रश्न का किसी के पास कोई उत्तर नहीं था. तब से साधु समाज में एक विचारधारा इस श्रेणी की भी बनी जो स्वामीजी के विचारों का समर्थन करती है. ये विचार उन्होंने प्रवचन मंच से तो सैंकड़ों बार उपस्थित किये ही परन्तु अपने उन विचारों को कविता की कड़ी में पिरोकर भी उपस्थित किये. वे सुधारात्मक गीत आज मी विद्यमान हैं. वैसे आपका कवित्वबल जागृत और प्राणवान था. भक्तिप्रधान तत्त्वप्रधान सुधारप्रधान और कथाचरित प्रधान रचनाएं की. उनके निकटवर्ती स्वामी श्रीचांदमलजी, श्रीजीतमलजी, बस्तावरमलजी बालचंदजी आदि ने प्रकाशित भी कराये हैं. कुछ पुस्तकें विभिन्न नामों से उनके जीवनकाल में भी प्रकाशित हो चुकी हैं. संस्कृत और प्राकृत भाषा के बल पर जैनागमों का गंभीर अध्ययन और चिंतन किया. प्रवचनपद्धति श्रवणसुखद थी. भाषा का माध्यम राजस्थानी था. क्योंकि राजस्थान का समूचा क्षेत्रफल उनका विहार क्षेत्र था. संगठन की ओर उनका सर्वाधिक लक्ष्य थे.. अलग-अलग सम्प्रदायों में साधुओं का बँटे रहना उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं था. व्यक्तिशः उन्होंने संगठनों के लिये समय-समय पर विपुल प्रयत्न किये थे. वे मानते थे कि महावीर के उत्तराधिकारियों की शक्ति विकेन्द्रित हो रही है. इसका केन्द्रीकरण होना नितान्त आवश्यक है. यह युग संगठन का युग है. संगठित होकर ही हम लोग नैतिक अभियान छेड़कर जन-जन में नैतिकता की पूजा प्रतिष्ठा कर सकते हैं. , सं० २००९ में सादड़ी में मुनियों का अखिल भारतीय स्तर पर सम्मेलन होने की घोषणा सुनी चर्चा, सुनी तो उनके मनका कोना-कोना प्रसन्नता से परिव्याप्त हो गया था. यद्यपि वे शारीरिक अवस्थावश उस सम्मेलन में शरीक नहीं हो सके थे परन्तु अपने साथी मुनि श्रीचांदमलजी श्रीजीतनमलजी व श्रीलालचन्दजी म० को बड़े चाव व उत्साह से सम्मेलन में भाग लेने के लिये भेजा था. सम्मेलन के पश्चात् अखिल भारतीय स्तर पर 'श्रमण संघ' के नाम से साधुओं का संगठन हो गया है, जब उन्होंने यह सुना Jain Education International For Private & Personal Use Only 崧然淺豢潮寮 燕麥 www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy