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________________ मुनि श्रीपुण्यविजय : जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७२५ स्थविर आर्य देवद्धिगणि ने वलभी में संघसमवाय को एकत्रित कर जैन आगमों को व्यवस्थित किया व लिखवाया. उस समय लेखन की प्रारम्भिक प्रवृत्ति किस रूप में हुई इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता. सामान्यतया मुखोपमुख कहा जाता है कि बलभी में हजारों की संख्या में ग्रंथ लिखे गये थे, किन्तु हमारे सामने शीलांकाचार्य, नवांगवृत्तिकार अभयदेवसूरि आदि व्याख्याकार आचार्यों के जो विषादपूर्ण उल्लेख विद्यमान हैं उनसे तो यह माना नहीं जा सकता कि इतने प्रमाण में ग्रंथलेखन हुआ होगा. श्रीशीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग की अपनी वृत्ति में इस प्रकार लिखा है : इह च प्रायः सूत्रादर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते, न च टीकासंवादी एकोऽप्यादर्शः समुपलब्धः, अत एकमादर्शमङ्गीकृत्यास्माभिविवरणं क्रियत इति, एतदवगम्य सूत्रविसंवाददर्शनाच्चित्तव्यामोहो न विधेय इति.' [मुद्रित पत्र ३३६-१] अर्थात् चूणिसंमत मूलसूत्र के साथ तुलना की जाय ऐसी एक भी मूलसूत्र की हस्तप्रति आचार्य शीलांक को नहीं मिली थी. श्री अभयदेवाचार्य ने भी स्थानांग, समवायांग व प्रश्नव्याकरण-इन तीनों अंग आगमों की वृत्ति के प्रारम्भ एवं अन्त में इसी आशय का उल्लेख किया है जो क्रमशः इस प्रकार है : १. वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगांभीर्याद् मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥२॥ यस्य ग्रंथवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च, चत्वारिंशदहो ! चतुभिरधिका मानं पदानामभूत् । तस्योच्चश्चुलुकाकृति विदधत: कालादिदोषात् तथा, दुर्लेखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं मादशा: ? ।।२।। ३. अज्ञा वयं शास्त्रमिदं गंभीर, प्रायोऽस्य कूटानि च पुस्तकानि । सूत्र व्यवस्थाप्यमतो विमृश्य, व्याख्यानकल्पादित एव नैव ॥२॥ ऊपर उदाहरण के रूप में श्री शीलांकाचार्य व श्री अभयदेवाचार्य के जो उल्लेख दिये हैं उनसे प्रतीत होता है कि वलभी में स्थविर आर्य देवद्धिगणि, गंधर्ववादिवेताल शान्तिसूरि आदि के प्रयत्न से जो जैन आगमों का संकलन एवं व्यवस्थापन हुआ और उन्हें पुस्तकारूढ़ किया गया, यह कार्य जैन स्थविर श्रमणों की जनआगमादि को ग्रंथारूढ़ करने की अल्परुचि के कारण बहुत संक्षिप्त रूप में ही हुआ होगा तथा निकट भविष्य में हुए वलभी के भंग के साथ ही वह व्यवस्थित किया हुआ आगमों का लिखित छोटा-सा ग्रंथ-संग्रह नष्ट हो गया होगा. परिणाम यह हुआ कि आखिर जो स्थविर आर्य स्कन्दिल एवं स्थविर आर्य नागार्जुन के समय की हस्तप्रतियां होंगी, उन्हीं की शरण व्याख्याकारों को लेनी पड़ी होगी. यही कारण है कि प्राचीन चूर्णियां एवं व्याख्या-ग्रंथों में सैकड़ों पाठभेद उल्लिखित पाये जाते हैं जिनका उदाहरण के रूप में मैं यहां संक्षेप में उल्लेख करता हूँ. आचारांगसूत्र की चूणि में चूर्णिकार ने नागार्जुनीय वाचना के उल्लेख के अलावा 'पढिज्जइ य' ऐसा लिखकर उन्नीस स्थानों पर पाठभेद का उल्लेख किया है. आचार्य श्रीशीलांक ने भी अपनी वृत्ति में उपलब्ध हस्तप्रतियों के अनुसार कितने ही सूत्रपाठभेद दिये हैं. इसी प्रकार सूत्रकृतांगचुणि में भी नागार्जुनीय वाचनाभेद के अलावा 'पठ्यते च, पठ्यते चान्यथा सद्भिः, अधवा, अथवा इह तु, मूलपाठस्तु, पाठविशेषस्तु, अन्यथा पाठस्तु, अयमपरकल्पः, पाठान्तरम्' आदि वाक्यों का उल्लेख कर केवल प्रथमश्रुतस्कन्ध की चूणि में ही लगभग सवा सौ जगह जिन्हें वास्तविक पाठभेद माने जाय ऐसे उल्लेखों की गाथा की गाथाएं, पूर्वार्ध के पूर्वार्ध व चरण के चरण पाये जाते हैं. द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पाठभेद तो इसमें शामिल ही नहीं किये गये हैं. INE SINARESISESEISERESSERINNENININESEN NENE Jain Educa
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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