SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 758
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनि श्रीपुण्यविजय : जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७२३ wwwwwwwwwww साहाय्य रहा होगा. दिगंबराचार्य देवसेनकृत दर्शनसारनामक ग्रन्थ में श्वेताम्बरों की उत्पत्ति के वर्णनप्रसंग में छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरट्ठ उप्पण्णो सेवडसंघो हु वलहीए ॥५२॥ एक्क पुण संतिणामो संपत्तो वलहिणामणयरीए । बहुसीससंपउत्तो विसए सोरट्ठए रम्मे ।।५६।। इस प्रकार का उल्लेख है. यद्यपि इस उल्लेख में दिया हुआ संवत् मिलता नहीं है तथापि उपर्युक्त 'वालब्भसंघकज्जे' गाथा में निर्दिष्ट वालभ्यसंघकार्य, शांतिसूरि, बलभि आदि उल्लेख के साथ तुलना करने के लिये दर्शनसार का यह उल्लेख जरूर उपयुक्त है. देवधिगणि जो स्वयं माथुरसंघ के युगप्रधान थे, उनकी अध्यक्षता में बलभीनगर में एकत्रित संघसमवाय में दोनों वाचनाओं के श्रुतधर स्थविरादि विद्यमान थे. इस संघसमवाय में सर्वसम्मति से माथुरी वाचना को प्रमुख स्थान दिया गया होगा. इसका कारण यह हो सकता है कि माथुरी-वाचना के जैनआगमों की व्यवस्थितता एवं परिमाणाधिकता थी. इसमें ज्योतिष्करंडक जैसे ग्रन्थों को भी स्थान दिया गया जो केवल वालभी-वाचना में ही थे. इतना ही नहीं अपितु माथुरी-वाचना से भिन्न एवं अतिरिक्त जो सूत्रपाठ एवं व्याख्यान्तर थे उन सबका उल्लेख नागार्जुनाचार्य के नाम से तत्तत् स्थान पर किया भी गया. आचारांग आदि की चूणिओं में ऐसे उल्लेख पाये जाते हैं. समझ में नहीं आता कि जिस समय जैनआगमों को पुस्तकारूढ किया गया होगा उस समय इन वाचनान्तरों का संग्रह किस ढंग से किया होगा?. जैनआगम की कोई ऐसी हस्तप्रति मौजूद नहीं है जिसमें इन वाचनाभेदों का संग्रह या उल्लेख हो. आज हमारे सामने इस वाचनाभेद को जानने का साधन प्राचीन चूणिग्रन्थों के अलावा अन्य एक भी ग्रन्थ नहीं है. चूणियाँ भी सब आगमों की नहीं किन्तु केबल आवश्यक, नन्दी, अनुयोगद्वार, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, निशीथ, कल्प, पंचकल्प, व्यवहार एवं दशाश्रुतस्कन्ध की ही मिलती हैं. ऊपर जिन आगमों की चूणियों के नाम दिये गये हैं उनमें से नागार्जुनीय-वाचनाभेद का उल्लेख केवल आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन व दशवकालिक की चूणियों में ही मिलता है. अन्य आगमों में नागार्जुनीय वाचना की अपेक्षा न्यूनाधिक्य या व्याख्याभेद क्या था, इसका आज कोई पता नहीं लगता. बहुत संभव है, ये वाचनाभेद चूर्णि-वृत्ति आदि व्याख्याओं के निर्माण के बाद में सिर्फ पाठभेद के रूप में परिणत हो गये हों. यही कारण है कि चूर्णिकार और वृत्ति कारों की व्याख्या में पाठों का कभी-कभी बहुत अन्तर दिखाई देता है. (१) दशवकालिकसूत्र को अनामकर्तृक मुद्रितचूणि के पृष्ठ. २०४ में "नागज्जुणिया तु एवं पढंति–एवं तु गुणप्पेही अगुणाऽणविवज्जए" इस प्रकार एक ही नागार्जुनीय वाचना का उल्लेख पाया गया है. यह उल्लेख पाठभेदमूलक नहीं अपितु व्याख्याभेदमूलक है. माथुरी वाचना वाले "अगुणाण विवज्जए-अगुणानां विवर्जकः" ऐसी सीधी व्याख्या करते हैं, जबकि नागार्जुनीय वाचना वाले “अगुणाऽणविवज्जए-अगुणरिणं अकुव्वंतो" अर्थात् 'अगुणरूप ऋण नहीं करते' ऐसी व्याख्या करते हैं. इस चूणि में नागार्जुनीय नाम का यह एक ही उल्लेख देखने में आया है. इसी दशकालिकसूत्र की स्थविर अगस्त्यसिंहकृत एवं अन्य प्राचीन चूणि पाई गई है जो अभी प्राकृत-टेक्स्ट-सोसाइटी की ओर से छप रही है. इसमें (पृ० १३६) इस स्थान पर उपर्युक्त वाचनाभेद का उल्लेख किया है किन्तु नागार्जुनीय नाम का उल्लेख नहीं है. इससे भी यही प्रतीत होता है कि नागार्जुनीय पाठभेदादि केवल पाठान्तर व मतान्तर के रूप में ही रह गये हैं. प्राचीन वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र भी अपनी वृत्ति में कहीं पर भी नागार्जुनीय वाचना का नामोल्लेख करते नहीं हैं. (२) आचारांगसूत्र की चूणि में नागार्जुनीयवाचनाभेद का उल्लेख पंद्रह जगह पाया जाता है१. भदन्त नागार्जुनीयास्तु पढंति पृ० ६२ वृत्तिपत्र २. णागज्जुणिया पढंति miRIALLite ANTED AAAAAAAWAAANTI DAIRATIONALDOMAIL. PSC ammHANI INDIA Priom ना Jain Ed
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy