SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 752
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Educatiort मुनि श्री पुण्यविजय : जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७१७ उपकरण नियमणमूले यसही, देववाणुकंपणं, रुसु पन्नरसदिवसवरिसणं कुणालागगरिविणासो वतो ततियवारिसे साराए नगरे दोहवि कालकरणं, अहेसत्तमपुढविकालणरगगमणं, कुणाल (णगरिविणासकालाओ तेरसमे वरिसे महावीरस्स केवलनारगुप्पत्ती ३. एयं अवद्धं." (आवश्यकचूर्णि भा० १ पृष्ठ ६०१; हरिभद्रवृत्ति पत्र. ४६५) अर्थात् जिन हकीकतों का उल्लेख किसी अंग या उपांग आदि में नहीं मिलता है किन्तु जो स्थविर आचार्यों के मुखोपमुख चली आई हैं उनका संग्रह "पांच सौ आदेश" कहलाता है. इन पांच सौ आदेशों का कोई संग्रह आज उपलब्ध नहीं है किन्तु आवश्यकचूर्णि वृत्ति आदि इधर-उधर विप्रकीर्णकरूप में कुछ-कुछ आदेशों का उल्लेख पाया जाता है (पत्र ४६५ तथा बृहत्कल्पसूत्रवृत्ति भा० १ पत्र. ४४ टि०६). (१) सैद्धान्तिक, कार्मग्रन्थिकादि जैन आगमों की परम्परा को मानने वाले आचार्य सैद्धान्तिक कहलाते हैं. कर्मवाद के शास्त्रों के पारम्पर्य को माननेवाले आचार्य कार्मग्रन्थिक कहे जाते हैं. तर्कशास्त्र की पद्धति से आगमिक पदार्थों का निरूपण करने वाले स्थविर तार्किक माने गये हैं. जैन आगम आदि शास्त्रों में स्थान-स्थान पर इनका उल्लेख किया गया है. भिन्न-भिन्न कुल, गण आदि की परम्पराओं में जो-जो व्याख्याभेद एवं सामाचारीभेद अर्थात् आचारभेद थे उनका तत्तत् कुल, गण आदि के नाम से "नाइलकुलिच्चयाणं आयाराओ आढवेत्ता जाव दसातो ताव णत्थि आयंबिलं, णिव्वीलिएणं पति" (व्यवहारगि) इस प्रकार देखा जाता है. (६) भद्रबाहुस्वामी (वीर नि० १७० में दिवंगतः ) अन्तिम धूतकेवली के रूप में प्रसिद्ध ये आचार्य अपनी अन्तिम अवस्था में जब ध्यान करने के लिए नेपालदेश में गये थे तब वीर संवत् १६० में श्रुत को व्यवस्थित करने का सर्वप्रथम प्रयत्न पाटलीपुत्र में हुआ था, ऐसी परम्परा है. ग्यारह अंगों के ज्ञाता तो संघ में विद्यमान थे किन्तु बारहवें अंग का ज्ञाता पाटलीपुत्र में कोई न था. अतएव संघ की आज्ञा शिरोधार्य कर आचार्य भद्रबाहु ने कुछ श्रमणों को बारहवें अंग की वाचना देना स्वीकार किया, किन्तु सीखने वाले श्रमण श्रीस्थूलभद्र के कुतूहल के कारण बारहवां अंग समग्रभाव से सुरक्षित न रह सका. उसके चौदह पूर्वो में से केवल दस पूर्वो की ही परम्परा स्थूलभद्र के शिष्यों को मिली. इस प्रकार आचार्य भद्रबाहु के बाद कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ किन्तु दस पूर्वी की परम्परा चली अर्थात् बारह अंगों में से चार पूर्व जितना अंश विच्छिन्न हुआ. यहीं से उत्तरोत्तर विच्छेदन की परम्परा बढ़ी. अन्ततोगत्वा बारहवां अंग ही लुप्त हो गया, एवं अंगों में केवल ग्यारह अंग ही सुरक्षित रहे. ग्यारह अंगों में से भी जो प्रश्नव्याकरणसूत्र अभी उपलब्ध है वह किसी नई ही वाचना का फल है क्योंकि समवायांग, नन्दी आदि आगमों में इसका जो परिचय मिलता है उससे यह भिन्न ही रूप में उपलब्ध है. आचार्य भद्रबाहु ने दशा, कल्प और व्यवहार इन तीन ग्रन्थों की रचना की, यह सर्वसम्मत है किन्तु इन्होंने निशीथ की भी रचना की ऐसा उल्लेख केवल पंचकल्प- चूर्णिकारने ही किया है. फिर भी आज निशीथसूत्रकी खंभात के श्रीशांतिनाथ ज्ञान भण्डार की वि० सं० १४३० में लिखी हुई प्रति में तथा वैसी अन्य प्रतियों में इसके प्रणेता का नाम विशाखगणि महत्तर बताया गया है. वह उल्लेख इस प्रकार है : दंसण-वरित गुतो गोती गामेन विसाहगणी महतरओ सज्जहिएसी । मंजूसा ॥१॥ किती तिषिणो जपतप हो (?) तिसागरणिरुद्धो । पुणरुतं भवति महि ससिव्त्र गगणंगणं तस्स ||२|| तस्स लिहिये जिसीहं धम्मधुराधरणपवरपुज्जस्स । आरोगधारण सिस्स - पसिस्सोवभोज्जं च ॥३॥ १४ अंगबाह्य अर्थाधिकार हैं. इनमें कल्प और व्यवहार को एक माना गया है। दिगम्बर परम्परा में धवला के अनुसार *** * wwwwww~~~~~~~~n *
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy