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________________ 142850202000000000000002 ४४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय कार्य करने लगे, किन्तु धीरे-धीरे समाज से अलग हो गये. आज स्थिति यह कि आप उच्छिष्ट भोजन के आधिक्य को महत्त्व देने लगे और अपने स्वाभिमान को भुला बैठे. आप समझते हैं कि मैंने आपको घाटे में डाल दिया है, पर यह मत समझना कि आपके अधिकार छिनवाने का प्रयत्न किया है. अगर आप लोग ऐसा समझते हैं तो यह गलत है. मैं चाहता हूँ कि आपका सुषुप्त स्वाभिमान जाग्रत हो. आपकी मानवता ऊँची उठे. और आप अपने को कुलीन कहे जाने वालों की कोटि में ही अनुभव करें. स्वच्छ भोजन प्राप्त करना आपका स्वाभाविक अधिकार है. आपको यह अधिकार प्राप्त करना ही चाहिये. हरिजन-बन्धुओं के गले बात उतर गई. स्वामीजी द्वारा मानव अधिकार की व्याख्या से वे अत्यधिक प्रभावित हुये. कुचेरा के समीप ही डेह ग्राम में भी स्वामीजी ने उक्त आन्दोलन को उसी समय चलाया और सफलता प्राप्त की । यह प्रसंग पचास वर्ष से भी अधिक पूर्व का है। प्राचार्य श्रीजवाहरलाल जी मने भी इस आन्दोलन को आगे बढ़ाने का प्रयास किया. स्वामीजी म. के गुरुदेव जब तक रहे तब तक आपने अपने को सर्वतोभावेन उनके चरणों में अर्पित किये रखा. आपने मन में यह निश्चय कर रखा था कि गुरु म० जब तक विद्यमान हैं तब तक उनकी सेवा और अध्ययन ही मेरा प्रधान कार्य रहेगा. गुरु म० के स्वर्गवास के पश्चात् आपने राजस्थान के लगभग छोटे-बड़े सभी गांवों में धर्म-प्रचार किया. सर्वत्र सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन का दिव्य संदेश दिया. आपने अपने प्रवचनों में समन्वय के स्वर को सर्वाधिक मुखरित किया. राजस्थान के ठाकुरों, राजाओं और जागीरदारों में आपका धर्मगुरु के रूप में पर्याप्त प्रभाव था. उन्हें मांस, मदिरा, जुवा और शिकार जैसे क्रूर कर्मों से उपरत कर उनमें मानवीय संवेदना की अनुभूतियों को जाग्रत किया। जागीरदारों से शिकार छुड़वाने की दिशा में आपको अद्वितीय सफलता मिली । इस दिशा में मारवाड़ के 'हरसौलाव' के ठाकुर, रजलानी के महाराजा आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. स्वामीजी म. के संयमीय जीवन पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि वे कितने बड़े धीर, बीर, तपस्वी थे. ब्रह्मचर्य का दिव्य तेज उनके भाल पर प्रतिबिम्बित था. स्वीकृत प्रतिज्ञाओं को दृढ़तापूर्वक स्वयं पालन करते थे और अपने अधीनस्थ मुनियों को भी समय-समय पर प्रतिबोधित करते रहते थे. स्वयं जिस सम्प्रदाय में रहे उस सम्प्रदाय के नियमों के पालन में बड़े वफादार सैनिक की तरह सजग रहे. अन्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित व्यक्ति को अपने सम्प्रदाय की ओर आकर्षित कर स्व-सम्प्रदाय की अभिवृद्धि करना अभीष्ट नहीं था. जैसा कि सर्वत्र होता रहा है ! होता आया है । इस संबंध में उनका स्पष्ट अभिमत था कि-जहाँ हो, वहीं रहो. नैतिक बनो, धर्म के निकट रहो. नियमित रूप से धर्मक्रिया करो. कहीं करो, करो. धर्मात्मा बनने के लिये सम्प्रदाय बदलने की नहीं, हृदय-परिवर्तन की आवश्यकता आपके नाम के व्याख्यामय मुनिजीवन का लक्षण एक कवि ने किया है. जैन जगत् में व विशेषत: जयगच्छ में निम्न कवित्त बहुत प्रसिद्ध है. जो रति-नायक जीति करे, जो रन संजम जोर लगावे । जो रत प्रीति जिनेश्वर के पद, जो रत्न-त्रय यत्न करावे। जो रमतो रह आतम-ज्ञान में, जो रसना शिव-मार्ग बताये । जो रत होय रटे प्रभु-जाप ही 'जोर' मुनीश्वर सो ही कहावे । स्वामी जी म० ने भंवाल-मारवाड़ में सं० १९८६ के वर्ष में संल्लेखना पूर्वक समाधिमरण प्राप्त कर जिनधर्म की शाश्वत संलेखना की परम्परा में मृत्यु को चुनौती दी और कालधर्म की उपलब्धि की. स्वामी श्रीब्रजलालजी म० आप स्वामी श्रीजोरावरमलजी म० के मँझले शिष्य हैं. जन्म-स्थान तिवरी (मारवाड़)। सं० १६५८ की वसंत CARRY Jain Education International VALjainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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