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________________ पं० भगवानदास जैन, शास्त्री प्राचीन वास्तुशिल्प 'वास्तुशिल्प' प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक प्रधान अंग है. इस विषय के अनेक ग्रंथ विद्यमान होने पर भी उनका अध्ययन न होने से अधिक प्रचार नहीं हो सका है. प्राचीन देवालयों, राजप्रासादों, दुर्गों, नगरों, गांवों, कुवों, वावड़ियों और सरोवर आदि की मनोहर सुन्दर आकृति देखकर के अपना मन प्रफुल्लित हो जाता है. यही प्राचीन वास्तुशिल्प है. जैनागमों में भी चक्रवर्तियों और देवों के भवनों का विस्तृत व सुंदर वर्णन है. इनकों बनाने वाले को 'स्थपति' अथवा 'सूत्रधार' कहा जाता है, जो आधुनिक देवालय और मकान आदि के बनाने वाले, लकड़ी के काम करने वाले बढ़ई और मिट्टी के बर्तन आदि बनाने वाले कुम्हार आदि के रूप में विद्यमान हैं. जैनागमों में चक्रवर्ती के चौदह महारत्नों में एक वाधिकीरत्न भी होता है. यह सूत्रधार है जो चक्रवर्ती की इच्छानुसार उनके मनपसंद की इमारत शीघ्र ही तैयार कर देता है. इसको 'विश्वकर्मा भी कहा गया है. प्रचलित में तो देवों के भवन आदि बनाने वालों को विश्वकर्मा कहते हैं. ऐसे इमारती काम करनेवाले शिल्पियों की विश्वकर्मा के नामकी दक्षिण देश में एक जाति भी विद्यमान है, इसलिए वास्तुशिल्प के काम करनेवाले को विश्वकर्मा के नाम से संबोधन किया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है. प्राणियों के निवासस्थान को वास्तु कहा गया है. उसकी उत्पत्ति के विषय में वास्तुशिल्प के प्राचीन 'अपराजित पृच्छा' नामक बृहत् ग्रंथ में लिखा है कि-अंधकासुर का विनाश करने के लिये महादेवजी को युद्ध करना पड़ा. इसके परिश्रम से महादेवजी के कपाल से पसीने का एक बिदु भूमि के ऊपर अग्निकुंड में गिरा. इससे एक महाकाय भूत उत्पन्न हुआ. उसे देवों ने औंधा पटक दिया और उसके ऊपर पैतालीस देव चढ़ बैठे और रहने लगे. इन देवों का महाकाय भूत के ऊपर निवास होने से उसको वास्तुपुरुष माना गया. इसलिए गृहादि के आरंभ में और समाप्ति में इन देवों का पूजन प्रचलित हुआ जो वास्तुपूजन के नाम से प्रसिद्ध है. वास्तुशिल्प जानने के लिये अपराजितपृच्छा, समरांगणसूत्रधार, प्रासादमंडन, शिल्परत्नम्, मयमतम् और परिमाणमंजरी आदि अनेक ग्रंथ मुद्रित हुए हैं. जैन वास्तुशिल्प के 'वत्थुसारपयरण' और 'जिनसंहिता' आदि मुख्य ग्रंथ हैं. वत्युसारपयरण में प्रथम गृहप्रकरण, दूसरा मूर्तिप्रकरण और तीसरा देवालयप्रकरण है. जिनसंहिता में देवालय और मूर्ति निर्माण का वर्णन है. इसमें प्रासाद की चौदह जातियों में से द्राविड़ जाति के प्रासाद का वर्णन है. यह दाक्षिणात्य पद्धति का होने से सर्वदेशीय नहीं बन सका. आचार्य श्री वसुनंदी कृत प्रतिष्ठासार में जो देवालय-निर्माण का वर्णन है, यह नागर जाति का होने से सर्व देशीय है. महल, मकान और देवालय-निर्माण के समय प्रथम भूमिपरीक्षण किया जाता है. वत्थुसारपयरण में लिखा है : 'दिणतिग-बीअप्पसवा चउरंसाऽवम्मिणी अफुहा अ। असल्ला भू सुहया पुज्वेसाणुतरंबुवहा । वम्मइणी वाहिकरी ऊसरभूमीइ हवह रोरकरी । अइफुट्टा मिच्चुकरी दुक्खकरी तह अ ससल्ला ।' INTROVE Y ThTIMRALIATTAp , SIRCTOINTAITUANTUDIO MAIMIM. JIRAONTHIATR1110111...MUInHeadlinal /MAILOnline For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ...dillmu T RAINMDil Jain Education Intemational
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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