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________________ ६५० मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय जैन और बौद्ध साहित्य में पूर्व के कुछ गणराज्यों के विषय में विस्तृत सूचना मिलती है. शेष सारे भारत में फैले हुए गणराज्यों और उनके कार्यों के प्रति भारतीय साहित्य मौन है. केवल कहीं-कहीं उनके नाम मात्र मिल जाते हैं. महाभाष्य में एक स्थान पर क्षुद्रकों की महत्त्वपूर्ण विजय की ओर महर्षि पतंजलि ने संकेत किया है. संभवतः यह विजय क्षुद्रकमालवों की संयुक्त सेना ने सिकन्दर पर प्राप्त की हो जिसका उल्लेख कुछ इतिहासकारों ने किया है. आरट्ट (वाहीक), क्षुद्रक, मालव, वाटधान, आभीर, अपरीती (अफरीदी), चर्मखण्डिक (समरकन्द), कठ, गान्धार, सिन्धु, सौवीर, ब्राह्मण-राज्य, मद्र, तुषार, दर्द, पक्थ, हारहण, शक, केकय, दशमानिक (दशनामी), काम्बोज, दशेरक, उलुत, तोमर, हंसमार्ग, शिवि, वसाति, उरसा, अम्बष्ठ, यौधेय, मल्ल, शाक्य, लिच्छिवि आदि उत्तरी भारत के प्राचीन गणराज्यों के नाम हैं. वर्द्धमान महावीर और गौतम बुद्ध के समय इनमें से कई गणराज्य बड़े ही प्रबल थे, परन्तु सामान्यतया यह काल गणराज्यों के ह्रास का था. जनपदों में राजतन्त्र शक्तिमान् हो रहे थे. मगध के राज्य से आतंकित होकर उसके सीमावर्ती कई गणराज्यों ने मिल कर वज्जिसंघ की स्थापना की थी जिसकी राजधानी वैशाली थी. इस संघ की प्रबलता का प्रमाण यह है कि तत्कालीन राजा संघ के विभिन्न गणों में विवाह करके उनकी मित्रता के आकांक्षी थे. वत्सराज उदयन वैदेहिपुत्र कहा गया है. बिम्बसार की रानी वासवी भी विदेहकुमारी थी. शाक्य शुद्धोदन की माया और महामाया नामक स्त्रियाँ लिच्छिवि थीं. कोशलराज प्रसेनजित की पत्नी शाक्य कन्या थी. महात्मा बुद्ध ने लिच्छिवियों के चरित्रबल, पारस्परिक-सम्मानभाव, भ्रातृत्व, शालीनता, शक्तिमत्ता, धर्मपरिपालन, निविलासिता, निरलसता आदि गुणों की प्रभूत प्रशंसा की है. परन्तु सारे गण ऐसे नहीं थे, उनमें गणसदस्यों में मिथ्याभिमान, जातीयगुरुता की भावना, विलासिता, आलस्य, चरित्रहीनता आदि दुर्गुण समाविष्ट हो रहे थे. यही कारण था कि एक एक करके समस्त गणराज्य समाप्त हो रहे थे. महात्मा बुद्ध व महावीर स्वामी ने जिन नैतिक आन्दोलनों का समारम्भ किया, वे मानवमाव के लिये थे. अतएव उनके लिये गणजीवन ही उत्तम माना जा सकता था. इन दोनों ही महापुरुषों ने एक ओर तो गणों के दुर्गुणों की निन्दा की है और दूसरी ओर अपने संघों की स्थापना करके आध्यात्मिक गणराज्य-परम्परा की नींव डाली है. आध्यात्मिक-गणराज्यपरम्परा के प्रवर्तक के रूप में बुद्ध व महावीर का योगदान मौलिक व युगान्तरकारी रहा है. वर्द्धमान महावीर कश्यप गोत्रीय ज्ञातृक क्षत्रिय कुल के थे. उन्हें 'सर्वोच्चजिन महावीर ज्ञातृपुत्र' कहा गया है. ज्ञातृक वज्जिसंघ के अष्टकुलों (अट्ठकुल) में प्रमुख गिने जाते थे. इनकी माता लिच्छिवि वंश की थी. महावीर को संघपरम्परा का ज्ञान अपने परिवार में ही हो गया होगा. अतः कठोर तपस्या के बाद अर्हत्त्व प्राप्त करके उन्होंने अपने अनुयायियों को 'संघ' के रूप से प्रबोधित किया. अतएव उनको बुद्ध के समय में ही संघी, गणी, गणाचार्य आदि नामों से अभिहित किया जाता था.५ कदाचित् प्रारम्भ में ऐसे धर्मसंघों का विरोध हुआ हो, धम्मपद से इस प्रकार की सूचना मिलती है. अर्हतां शासनं यस्तु प्रार्याणां धर्मजोविनाम् , प्रतिक्रोशति दुर्मेधाः दृष्टिं निश्चित्य पापिकाम् ।। वैदिक समाज की नींव श्रम-यज्ञ पर आधारित है, जिसका रूप आश्रम-व्यवस्था के रूप में प्रतिष्ठित हुआ. श्रम को १. एकाकिभिः क्षुद्रकेर्जितम् . अष्टाध्यायी सूत्र ५।३।५२ पर पातंजलमहाभाष्य. २. डा० राधाकुमुद मुकर्जी-हिन्दूसभ्यता पृ० २८४-८५. ३. प्राचीन पुस्तक माला २२२२६६. ४. सूत्रकृतांग सूत्र ११११५२७. ५. डा० राधाकुमुद मुकर्जी-हिन्दू सभ्यता २३२, ६. धम्मपद १२.८. . . . OOD . . .... DO.COOT .. ... TOON H Jain Educ.C O . TO........................ .......................................... org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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