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________________ ++++++++++++++ ६३६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय तथा श्री देवदत्त की बताई गई कई मूत्तियाँ आज यथास्थान नहीं मिलतीं, पता नहीं कौन कहाँ ले गया. भारत के प्रख्यात इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार एवं मराठा इतिहासकार डा० जी० एस० सर देसाई ने जयपुर संग्रह के संबंध में मत व्यक्त करते हुये कहा था-'यदि संग्रह के कागजातों की परीक्षा की जाय तो ऐसी मूल्यवान् जानकारी मिलने की संभावना है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. प्रसन्नता की बात है कि राज्यसरकार ने राज्य का एक और पुरातत्व का विभाग अलग से खोला है जो प्रारम्भ में राजस्थान के प्रमुख इतिहासकार डाक्टर मथुरालाल शर्मा के निर्देशन में विकसित हुआ और श्री नाथूराम खडगावत के संचालन में निरन्तर प्रगति कर रहा है. और यह आशा की जा सकती है कि विभिन्न राज्यों के पुराने संग्रहालयों के व्यवस्थित होने पर वह न केवल राजस्थान बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष के इतिहास के सम्बन्ध में कई नई बातें प्रकट करेगा और इतिहास के रिक्त स्थानों की पूर्ति करने में सहायक होगा. राजस्थान के प्राचीन साहित्य की खोज करने तथा उसको विश्व के सन्मुख उपस्थित करने की दृष्टि से एक अन्य विदेशी विद्वान् ने भी भारी सेवा की है. उस विद्वान् ने सेवा ही नहीं की बल्कि उसने अपनी युवावस्था में ही इस कार्य के हेतु अपने जीवन का बलिदान भी कर दिया. वह विद्वान् थे इटलो के डा० एल० पी० तैसीतौरी. वे अपने देश में रहते हुये राजस्थान के और उसके साहित्य के प्रेमी हो गये थे. कहा जाता है कि उन्होंने राजस्थान में आकर अपना जीवन बिताना अपनी साध बना ली थी. वे सन् १९१४ में भारत आये और बंगाल एशियाटिक सोसाइटी में बाडिक एण्ड हिस्टोरिकल सर्वे आफ राजपूताना सुपरिन्टेन्डेन्ट के पद पर नियुक्त हुये. उसी वर्ष आपने राजस्थान में कार्य शुरू किया और १९१८ में ३१ वर्ष की आयु में बीकानेर में आपका देहावसान हो गया. इस काल में आप द्वारा किये गये शोध कार्य का विवरण एशियाटिक सोसाइटी ने प्रकाशित किया है. जोधपुर और बीकानेर के डिंगल ग्रन्थों की आपके द्वारा तैयार की गई सूचियाँ भी सोसाइटी ने तीन भागों में प्रकाशित की हैं. राजस्थानी इतिहास एवं साहित्य के बारे में बाद के पुस्तकलेखकों ने इस सारी सामग्री का तथा शिला लेखों, मुद्राओं, मूर्तियों आदि अन्य सामग्री का जो संकलन आपने बीकानेर में किया था, उसका पूरी तरह उपयोग किया है. डा० तैसीतोरी का जीवन वृत्तान्त (अप्रेल, १९५० के अंक में) छाप कर "राजस्थान भारती" ने सराहनीय कार्य किया है, क्योंकि डा० तैसीतोरी की राजस्थानी साहित्य के प्रति सेवाओं के बावजूद वे बहुत कम प्रकाश में लाये गये थे. डा० तैसीतोरी में एक महान् मानवीय गुण था. वे पश्चिमी होते हुए भी भारत के प्रति महान् आदरभाव रखते थे, जो उस काल में एक बड़े नैतिक साहस की बात थी. उन्होंने स्वयं एक पत्र में लिखा था, "मैं भारत में इसीलिए आया हूँ क्योंकि मुझे भारत के लोगों व उनकी भाषा और साहित्य से प्रेम है....मैं कोई अंग्रेज नहीं हूँ जो उन सब चीजों को हेठी निगाहों से देखते हैं जो इंग्लैंड की या कम से कम यूरोप की नहीं है. मेरे मन में भारतवासियों के प्रति उच्चतम आदर और सराहना के भाव हैं. "कर्नल टाड और तैसीतोरी में एक और बड़ी समानता थी. दोनों को दो जैन विद्वानों से सहायता मिली थी और दोनों इनको अपना गुरु मानते थे. टाड के सहायक, मार्गदर्शक एवं गुरु थे जैन यति ज्ञानचन्द और तैसीतोरी के थे आचार्य विजयधर्म सूरि. यह स्पष्ट है कि जैन सम्प्रदाय ने जो सेवा राजस्थानी साहित्य की रचना एवं सुरक्षा की की है उतनी ही उन्होंने बाद के काल में उसको व्यवस्थित ढंग से विश्व के सन्मुख प्रस्तुत कराने में भी की है. यह भी संयोग और आश्चर्य की बात नहीं है कि आज भी प्राचीन साहित्य एवं इतिहास के संपादन, आदि की दृष्टि से सर्वाधिक सेवाएँ मुनि जिनविजय, मुनि कान्तिसागर आदि जैन विद्वान् कर रहे हैं. राजपूताना के साहित्य एवं इतिहास के सम्बन्ध में किये गये उपर्युक्त शोध-कार्य के अलावा, कुछ अन्य अंग्रेज अधिकारियों ने भी इस कार्य में अपना योगदान दिया, जिनमें अलेग्जेंडर किलोक फर्स, अलेग्जेंडर कनिंगहम, कार्लाइल एवं गरिक आदि मुख्य हैं. गुजरात के इतिहास 'रासमाला' नामक ग्रन्थ के रचयिता श्री फार्स ने आबू के कई शिलालेखों की नकलें कीं और देलवाड़े के दोनों जैन मन्दिरों की कारीगरी का वृत्तान्त लिखा. भारत सरकार के आक्रियालाजिकल डिपार्टमेंट के तत्कालीन अध्यक्ष श्री कनिंगहम ने राजपूताना के कई स्थानों का दौरा कर वहाँ के शिलालेखों एवं शिल्प Jain PLEASEEry.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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