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________________ डॉ. राजकुमार जैन : वृषभदेव तथा शिव-संबंधी प्राच्य मान्यताएँ : ६१३ अपभ्रश रूप है जो आर्यगण के भारत-आगमन से पूर्व ही आदिब्रह्मा वृषभ के लिये प्रयुक्त होता आ रहा था. यही कारण है कि ब्राह्मण ऋषियों को वृषभ की अग्नि संज्ञा 'अग्रि' अर्थमूलक करने के लिये तत्सम्बधी श्रुतियों को आधार बनाकर उसकी व्युत्पत्ति 'अग्र' शब्द से करनी पड़ी. अन्यथा संस्कृत भाषा की दृष्टि से अग्रि एवं अग्नि शब्द में अत्यन्त पार्थक्य है. आर्यजन के अग्निदेव और वृषभदेव की एकता वैदिक अनुश्रुतियों से सिद्ध होता है कि अग्नि संज्ञा से वृषभ की उपासना करने वाले अधिकांश वे क्षत्रियजन थे, जो पञ्चजन के नाम से प्रसिद्ध थे.' इनमें यदु, तुर्वसा, पुरु, द्रुह्य , अनु नाम की क्षत्रिय जातियां सम्मिलित थीं. ये लोग ऋग्वैदिक काल में कुरुक्षेत्र, पंचाल, मत्स्यदेश और सुराष्ट्र देश में बसे थे. जब आर्यगण सप्त सिन्धु देश में से होते हुए कुरुभूमि में आबाद हुए और यहां पंचजन क्षत्रियों की धार्मिक संस्कृति के सम्पर्क में आये तो उससे प्रभावित होकर इन्होंने भी उनके आराध्य देव वृषभ को 'अग्नि' संज्ञा से अपना आराध्य देव बना लिया. यह ऐतिहासिक तथा कश्यपगोत्री मरीचिपुत्र ऋषि ने अग्निदेव की स्तुति करते हुए ऋग्वेद १-६ में 'देवा अग्निं धारयन् द्रविणोदाम्' शब्दों द्वारा स्वयं व्यक्त किया है. इस सूक्त के नौ मन्त्र हैं. इनमें से पहले सात मन्त्रों के अन्त में ऋषिवर ने उक्त शब्दों को पुनः पुनः दोहराया है. इसका अर्थ है कि-देवा (अपने को देव संज्ञा से अभिवादन करने वाले आर्य गण ने) द्रविणो दा (धनश्वर्य प्रदान करने वाले) अग्नि (अग्नि प्रजापति को) धारयन् (अपना आराधना-देव धारण कर लिया). प्रस्तुत सूक्त ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है. इसमें प्रथम तो भगवान् वृषभ की स्तुति में गाये जाने वाले ऋक्, यजु, साम एवं अथर्व संहिताओं में संकलित स्तोत्रों से भी प्राचीन उन निविद अथवा निगद स्तोत्रों का उल्लेख है, जिनसे ध्वनित होता है कि भगवान् वृषभ आर्यगण के आने से पूर्व ही भारत के आराध्य देव थे. इसके अतिरिक्त इस सूक्त में भगवान् वृषभ द्वारा मनुओं की सन्तानीय प्रजा को अनेक विद्याओं से समृद्ध करने, अपने पुत्र भरत को राज्य-भार सौंपने तथा अपने अन्य पुत्र वृषभसेन को, जो जैन मान्यता के अनुसार भगवान् के ज्येष्ठ गणघर अथवा मानसपुत्र थे, ब्रह्मविद्या देने का भी उल्लेख है. इस सूक्त के निम्नांकित प्रथम चार मंत्रों से उल्लिखित तथ्यों की स्पतः संपुष्टि होती है : 'अपश्चमित्रं (जो संसार का मित्र है.) धिषणा च साधन (जो ध्यान द्वारा साध्य है), प्रन्नथा (जो पुरातन है), सहसा जायमानः (जो स्वयंभू है) सद्यःकाव्यानि वडधन्त विश्वा (जो निरन्तर विभिन्न काव्य स्तोत्रों को धारण करता रहता है, अर्थात् जिसकी सभी जन स्तुति करते रहते हैं), देवो अग्निं धारयन् द्रविणोदाम् (देवों ने उस द्रव्यदाता अग्नि को धारण कर लिया.)२ पूर्वया निविदा काव्यतासोः (जो प्राचीन निविदों द्वारा स्तुति किया जाता है), यमाः प्रजा अजन्यन् मनुनाम् (जिसने मनुओं की सन्तानीय प्रजा की व्यवस्था की) विवस्वता चक्षुषा धाम पञ्च (जो अपने ज्ञान द्वारा द्यु और पृथ्वी को व्याप्त किये हुए हैं), देवों ने उस द्रव्यदाता को धारण कर लिया.)' (३) खारवेल के शिलालेख (ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी) में भी ऋषभ जिन का उल्लेख अग्ग जिन के रूप में हुआ है (नन्दराजनीतान अगजिनस). (ई) 'प्रजापति देवतानःसृज्यमान अगिनमेव देवानां प्रथममसृजत्.' तैत्तिरीय ब्राह्मण, २१, ६, ४. (उ) 'अगिनर्व सर्वाद्यम् ।'-ताण्ड्य ब्राह्मण, ५, ६३. १. 'जना यदगिनमजयन्त पञ्च.'-ऋग्वेद. १०,४५, ६. २. ऋग्वेद, १.६, १. ३. वही, १,६, २. L... . ......Om ... DOO HO...OOOT JOUD O Jain de .. ...............000000 000000000.oooooooooooooooooo antatunabibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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