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________________ ६१० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय इस प्रकार बतलाया गया है: 'अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थम् ।' अर्थात् भगवान् का यह अवतार रजोगुणी जन को कैवल्य की शिक्षा देने के लिये हुआ था. किन्तु उक्त वाक्य का यह अर्थ भी संभव है कि यह अवतार रज से उपप्लुत अर्थात् रजोधारण 'मल धारण करना' वृत्ति द्वारा कैवल्य की शिक्षा के लिये हुआ था. जैन साधुओं के आचार में अस्नान, अदन्तधावन तथा मलपरीषह आदि के द्वारा रजोधारण वृत्ति को संयम का एक आवश्यक अंग माना गया है. बुद्ध के समय में भी रजोजल्लिक श्रमण विद्यमान थे. तथागत ने श्रमणों की आचारप्रणाली में व्यवस्था लाते हुए एक बार कहा था - 'नाहं भिक्खवे संघाटिकस्स संघाटिधारणमत्तेन सामनं वदामि, अचेलकस्स अचेलकमत्तेन रजोजल्लिकस्स रजोजल्लिकमत्तेन जटिलकस्स जटाधारणमत्तेन सामनं वदामि.' अर्थात्-हे भिक्षुओ, मैं संघाटिक के संघाटी धारण मात्र से श्रामण्य नहीं कहता, अचेलक के अचेलकत्व मात्र से, रजोजल्लिक के रजोजल्लिक मात्र से और जटिलक के जटा धारणमात्र से भी श्रामण्य नहीं कहता. भारत के प्राचीनतम साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट है कि उक्त वातरशना तथा रजोजल्लिक साधुओं की परम्परा बहुत प्राचीन परम्परा है. ऋग्वेद में उल्लेख है : 'मुनयो वातरशना पिशंगा वसते मला , वातस्यानु धाजि यन्ति यद्देवासो अविसत । उन्मादिता मौनेयेन वातां श्रातस्थिमा वयम् , शरीरे दस्माकं सू यं मर्तासो अभिश्यथ ।' अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं. जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, तब वे अपने तप की महिमा से देदीप्यमान होकर देवता स्वरूप को प्राप्त होजाते हैं. वातरशना मुनि प्रकट करते हैं-समस्त लौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् 'परमानन्दसम्पन्न' वायु भाव 'अशरीरी ध्यानवृत्ति' को प्राप्त होते हैं. तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीरमात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे आभ्यन्तर स्वरूप को नहीं. वातरशना मुनियों के वर्णन के प्रारम्भ में ऋग्वेद में ही 'केशी' की निम्नांकित स्तुति की गई है, जो इस तथ्य की अभिव्यंजिका है कि 'केशी' वातरशना मुनियों के प्रधान थे. केशी की वह स्तुति निम्न प्रकार है : 'केश्यग्नि केशी विषं केशी विभर्ति रोदसी, केशी विश्वं स्वदशे केशीदं ज्योतिरुच्यते।' केशी अग्नि, जल, स्वर्ग तथा पृथ्वी को धारण करता है. केशी समस्त विश्व के तत्त्वों का दर्शन कराता है और केशी ही प्रकाशमान 'ज्ञान' ज्योति कहलाता है, अर्थात् केवल ज्ञानी कहलाता है. ऋग्वेद के इन केशी तथा वातरशना मुनियों की साधनाओं की श्रीमद्भागवत में उल्लिखित वातरशना श्रमणऋषि और उनके अधिनायक ऋषभ तथा उनकी साधनाओं की पारस्परिक तुलना भारतीय आध्यात्मिक साधना और उसके प्रवर्तक के निगूढ प्राक् ऐतिहासिक अध्याय को बड़ी सुन्दरता के साथ प्रकाश में लाती है. १. मज्झिमनिकाय, ४०. २. ऋग्वेद,१०,१३६, २-३. ३. ऋग्वेद, १०, १३६, १. JainEducanorrimurn Obrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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