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________________ ५७८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय पिता की वाणी सुन सुमति कुछ नहीं बोला. पिता ने अपनी बात को बार-बार दोहराया, तब सुमति मुस्कान भरते हुए बोला -'पिता, आपने जो उपदेश दिया, उसका में बहुत बार अभ्यास कर चुका हूं, अनेक शास्त्रों और शिल्पों का भी मैंने अभ्यास किया है. मुझे मेरे अनेक पूर्व-जन्मों की स्मृति हो रही है. मुझे ज्ञानबोध उत्पन्न हो गया हैं. मुझे वेदों से कोई प्रयोजन नहीं है. मैंने अनेक माता-पिता किये है." संसार परिवर्तन के लम्बे वर्णन के बाद सुमति ने कहा—'पिता ! संसार-चक्र में भ्रमण करते-करते मुझे अब मोक्ष प्राप्ति कराने वाला ज्ञान मिल गया है. उसे जान लेने पर यह सारा ऋग, यजुः और साम संहिता का क्रिया-कलाप मुझे विगुण सा लग रहा है. वह मुझे सम्यक् प्रतिभासित नहीं हो रहा है. बोध उत्पन्न हो गया है. त्र गुरु-विज्ञान से तृप्त और निरीह हो गया हूं. मुखे वेदों से कोई प्रयोजन नहीं. पिता ! मैं किपाक फल के समान इस अधर्माढ्य-त्रयीधर्म (ऋग् यजुः, साम-धर्म) को छोड़कर परमपद की प्राप्ति के लिये जाऊंगा.२ पिता ने पूछा : पुत्र ! यह ज्ञान तुझे कैसे सम्भव हुआ? सुमति ने कहा-'पिता में पूर्वजन्म में परमात्मलीन ब्राह्मण संन्यासी था. आत्म-विद्या में मुझे परानिष्ठा प्राप्त थी. मैं आचार्य हुआ. अन्त में मरते समय मुझे प्रमाद हो आया. एक वर्ष का होते-होते मुझे पूर्व-जन्म की स्मृति हो आई. मुझे जो जाति स्मरण ज्ञान हुआ है, उसे त्रयी-धर्म का आश्रय लेने वाले नहीं पा सकते.'3 यज्ञ सोलह ऋत्विक, यजमान और उसकी पत्नी-ये अठारह यज्ञ के साधन हैं. ये सब निकृष्ट कर्म के आश्रित और विनाशी हैं. जो मूढ़ 'यही श्रेय है' इस प्रकार इनका अभिनन्दन करते हैं, वे बार-बार जरा-मरण को प्राप्त होते रहते हैं.४ ।। यज्ञ संख्या की उपयोगिता के प्रति सन्देह की भावना आरण्यक काल में भी उत्पन्न हो गई थी. तत्त्वज्ञानी के लिये आध्यात्मिक यज्ञ का विधान होने लगा था. तत्तरीय आरण्यक में लिखा है : 'ब्रह्म का साक्षात्कार पाने वाले विद्वान् संन्यासी के लिये यज्ञ का यजमान आत्मा है. अन्तःकरण की श्रद्धा पत्नी है. शरीर समिधा है. हृदय वेदि है. मन्यु-क्रोध पशु है. तप अग्नि है और दम दक्षिणा है.५ ये स्वर इतिहास के उस काल में प्रबल हुए थे, जब श्रमण विचार-धारा कर्मकाण्ड को आत्म-विद्या से प्रभावित कर रही थी. १. वही, श्लोक १४-२६ २. मार्कण्डेय पुराण, अध्याय १०, श्लोक २७-२८,३२. एवं संसारचक्रेस्मिन्भ्रमता तात ! संकटे । ज्ञान मेतन्मया प्राप्तं, मोक्ष-सम्प्राप्ति कारकम् । विज्ञाते यत्र सर्वोयं, ऋग् यजुः साम संहिता । क्रिया कलापो विगुणो, न सम्यक् प्रतिभातिमे । तस्माद् यास्याम्यह तातः. त्यक्तवेमां दु:खसन्ततिम् । त्रयी-धर्म मधर्माढय. किंपाकफलसन्निभम् । ३. मार्कण्डेय पुराण, अध्याय १०, श्लोक ३४-४२. ज्ञानदान फलं ह्येतद्, यज्जाति रमणं मम । नह्य तत् प्राप्यते तात ! त्रयीधर्माश्रितैर्नरः ।४२। ४. मुण्डकोपनिषद् १२१७, पृष्ठ ३८. ५. तैत्तरीय आरण्यक प्रपाठक १०, अनुवाक ६४, भाग २ पृष्ठ ७७६. AUS.O R . ० HINDI Jain Education E joinemirary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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