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________________ ५६. : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय ११. रसायनशास्त्र-इसमें सोना (सुवण्णपाग) चांदी (हिरण्ण) को बनाना तथा नकली धातुओं को असली हालत में परिवर्तित करना (सजीव) तथा असली धातु को नकली धातु बनाना (निज्जीव) सम्मिलित था. १२. गृह-विज्ञान-इसमें मकान बनाना (वत्युविज्जा), नगरों तथा जमीन को नापना (नगरारमण खन्धारणम) सम्मिलित थे. १३. युद्धविज्ञान-इसमें जुद्ध (युद्ध), निजुद्ध (कुश्ती) जुद्धातिजुद्ध (घोरयुद्ध) दिट्ठिीजुद्ध (दृष्टि युद्ध), मुट्ठिजुद्ध (मुष्टि युद्ध), बाहुयुद्ध, लयाजुद्ध, मल्ल युद्ध इसत्थ (तीर विज्ञान), चरूप्पवाय (असिविज्ञान), धनुव्वेय (धनुर्विज्ञान), वूह (व्यूह विज्ञान), पडिवूह (प्रतिव्यूह विज्ञान), चक्कवूह (चक्रव्यूह विज्ञान), गरुडवूह (गरुडव्यूह विज्ञान), तथा सगडवूह (शकटव्यूह विज्ञान) सम्मिलित थे. शिक्षण विधि-वैदिक काल में प्रारम्भ से ही सूत्रों को कण्ठाग्र करने की रीति थी. उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित की अभिव्यक्ति वाणी के साथ ही साथ हाथ की गति से भी की जाती थी. वैदिक मन्त्रों को कंठस्थ करने के लिये तथा उनके पाठ में किसी प्रकार की त्रुटि न होने देने के लिये विविध प्रकार के पाठ होते थे. जैसे-संहिता-पाठ, पद-पाठ, ऋम-पाठ, घन-पाठ, जटा-पाठ आदि. जैन-शिक्षण-पद्धति का श्रेय महावीर को है. महावीर ने कहा था कि 'जैसे पक्षी अपने शावकों को चारा देते हैं वैसे ही शिष्यों को नित्य प्रति, दिन और रात शिक्षा देनी चाहिए. यदि शिष्य संक्षेप में कुछ समझ नहीं पाता था तो आचार्य व्याख्या करके उसे समझाता था. आचार्य, अर्थ का अनर्थ नहीं करते थे. वे अपने आचार्य से प्राप्त विद्या को यथावत् शिष्य को ग्रहण कराने में अपनी सफलता मानते थे. वे व्याख्यान देते समय व्यर्थ की बातें नहीं करते थे.२ परवर्ती युग में शास्त्रों के पाठ करने की रीति का प्रचलन हुआ. विद्यार्थी, शास्त्रों का पाठ करते समय शिक्षक से पूछ कर सूत्रों का ठीक-ठीक अर्थ समझ लेता था और इस प्रकार अपना संदेह दूर करता था. विद्यार्थी बार-बार आवृत्ति करके अपने पाठ को कंठस्थ कर लेता था. फिर वह पड़े हुए पाठ का मनन और चिन्तन करता था. प्रश्न पूछने से पहले विद्यार्थी आचार्य के समक्ष हाथ जोड़ लेता था.४ जैन शिक्षण की वैज्ञानिक शैली के पांच अंग थे--१. वाचना (पढ़ना), २. पृच्छना (पूछना), ३. अनुप्रेक्षा (पढ़े हुए विषय का मनन करना), ४. आम्नाय (कण्ठस्थ करना और पाठ करना) तथा ५. धर्मोपदेश.५ अनुशासन-वैदिक युग में आचार्य विद्यार्थी को प्रथम दिन ही आदेश देता था कि 'अपना काम करो, कर्मठता ही शक्ति है, अग्नि में समिधा डालो, अपने मन को अग्नि के समान ओजस्विता से समद्धि करो, सो ओ मत.' जैन शिक्षण में भिक्षुओं के लिये शारीरिक कष्ट का अतिशय महत्त्व बताया गया है. व्रतभंग के प्रसंग साधु को मरना तक श्रेयस्कर बताया गया है. जैन शिक्षण में शरीर की बाह्य शुद्धि को केवल व्यर्थ ही नहीं अपितु अनर्थ-कार्य बताया गया है. शरीर का संस्कार करने वाले श्रमण 'शरीर बकुश' (चरित्रभ्रष्ट) कहलाते थे.७ परवर्ती युग में विद्यार्थियों के लिये आचार्य की आज्ञा पालन करना, डांट पड़ने पर उसे चुपचाप सह लेना, भिक्षा में स्वादिष्ट भोजन न लेना आदि नियम बनाये गये. विद्यार्थी सूर्योदय के पहले जागकर अपनी वस्तुओं का निरीक्षण करते १. आचारांग, १.६.३.३. २. सूत्रकृतांग, १.१४. २४-२७. ३. उत्तराध्ययन, २६.१८. तथा १.१३. ४. उत्तराध्ययन १. २२. ५. स्थाना, ४६५. ६. शतपथब्राह्मण, ११.५.४.५. ७. स्थाना, ४४५ तथा १५८. 16. G: . Jain Education mamibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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