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________________ ५५४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय हैं और सब अपने आप में स्वतन्त्र एवं अनन्त शक्ति से सम्पन्न हैं. अत: सब के समान अधिकार हैं और सब को प्रगति करने का अवसर मिलना चाहिए. जैन-संस्कृति में युग-युगान्तर से सर्वोदय का महत्त्व रहा है. सम्पत्ति एवं सुखसाधनों के वितरण के लिये भी जैन विचारकों ने संग्रह बुद्धि की भावना को पाप कहा है. भगवान् महावीर का यह वज्रघोष रहा है-'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो' जो व्यक्ति अपने साधनों का संविभाग नहीं करता, वह मुक्ति का अधिकारी नहीं हो सकता. इस का स्पष्ट अर्थ यह है कि जो अपने सुख एवं हित के साथ प्राणी-मात्र के हित और सुख का खयाल रखता है और उन्हें आगे बढ़ने में सहयोग देता है, वही मुक्ति पा सकता है. यत्र-तत्र-सर्वत्र से समेट-समेट कर अपने भंडार भरने वाला तथा समस्त सुख-साधनों पर अपना एकाधिपत्य रखने का इच्छुक मुक्ति नहीं पा सकता. मुक्ति लेने में नहीं, देने में है. जो अपने सुख को प्राणी-मात्र के सुख में परिणत कर देता है और अपने 'अहम्' को सारे विश्व में फैला देता है, वही पूर्ण सुख पा सकता है और उसी को शाश्वत एवं अखण्ड शान्ति का लाभ होता है. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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