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________________ वासुदेवशरण अग्रवाल : पुरुष प्रजापति : ५२३ -0--0--0-0-0-0-0-0-0-0 हृदयस्थ वामनरूपी विष्णु किसी प्रकार अवमानना के योग्य नहीं है. वही अविचाली सहज परिपूर्ण और स्वस्थभाव है. जो मानव इस केन्द्र स्थभाव में स्थिर रहता है, वही निष्ठावान् मानव है. जिसका केन्द्रविचाली है, कभी कुछ कभी कुछ सोचता और आचरण करता है. वही भाबुक मानव है. केन्द्र स्थिर हुए विना परिधि या महिमामण्डल शुद्ध बन ही नहीं सकता. आत्मा, बुद्धि मन और शरीर इन चारों विभूतियों में आत्मा और बुद्धि की अनुगत स्थिति का नाम निष्ठा है और मन एवं शरीर की अनुगत स्थिति का नाम भावुकता है. प्राय: निर्बल संकल्प-विकल्प वाले पनुष्य मन और शरीरानुगत रहते हुए अनेक व्यापारों में प्रवृत्त होते हैं. जो बुद्धि मन को अपने वश में कर लेती है, उसी को वैदिक भाषा में मतीषा कहते हैं. जिस अविचाली अटल बुद्धि में पर्वत के समान ध्रुव या अटल निष्ठा होती है, उसे ही धिषणा कहते हैं. वैदिक भाषा में इसी अश्माखण प्राण के कारण इसे “धिषणा पावतेयी' कहा जाता है. बारम्बार यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि भारतीय मानव धर्मभीरु होते हुए भी सर्वथा अभिभूत क्यों हैं ? उसका ज्ञान और कर्म इस प्रकार कुण्ठित क्यों बना हुआ है ? इस प्रश्न का मानवोचित समाधान यही है कि भारतीय मानव अत्यन्त भावुक हो गया है. उसने अपना प्राचीन निष्ठाभाव खो दिया है. वह सारे विश्व के कल्याण के लिये सौम्यभाव से आकुल हो जाता है, किन्तु आत्मकेन्द्र की रक्षा नहीं करता. उसका अन्तःकरण सौम्य होते हुए भी भावुक होने के कारण पिब्दमान या पिलपिला रहता है. वह दृढ़ कर्म और विचारों में सक्षम नहीं बन पाता. उसमें धर्म भीरुता तो होती है, किन्तु आत्मसत्यरूपी धर्मात्मकता नहीं होती. आत्मनिष्ठा पर अध्यारूढ़ होना सच्ची श्रद्धा है. उसका भारतीय मानव में अभाव हो गया है. अतएव उसके स्वतन्त्र व्यक्तित्त्व का विकास नहीं हो पाता. वह जिस किसी के लिये भी अपनी आत्मा का समर्पण तो करता है, किन्तु निष्ठापूर्वक ग्रहण कुछ भी नहीं करता. मनोगभिता बुद्धि से प्रवृत्त होने वाला मानव ही निष्ठावान् मानव है. ऐसे मानव का स्वयं केन्द्र विकसित होता है. केन्द्रबिन्दु का नाम ही मनु है. आत्मबीज का नाम ही मनु कहा जाता है. वह मनुतत्व जिस मानव में विकसित नहीं है, उसमें श्रद्धा का होना भी व्यर्थ है. श्रद्धा तो मनु की पत्नी है अर्थात् श्रद्धा मनु के लिये अशिति या भोग्य है. जिस समय आत्मकेन्द्र मनु तेजस्वी होता है, उस समय वह अपने ही आप्यायन या संवर्धन के लिये बाहर से श्रद्धारूपी अशिति या भोग्य प्राप्त करता है. मनु श्रद्धा का भोग करके ही पूर्ण बनते हैं. मनु और श्रद्धा की एक साथ परिपूर्ण अभिव्यक्ति ही सत्य का स्वरूप है, अर्थात् सर्वप्रथम मानव का आत्मकेन्द्र उद्बुद्ध होना चाहिए. उसमें सौर प्राण या इन्द्रात्मक ज्योति का पूर्ण प्रकाश आना चाहिए, तभी वह सच्चा मनुपुत्र या मानव बनता है और इस प्रकार आत्मकेन्द्र के उद्बुद्ध होने के बाद आत्म-बीज के विकास के लिये वह सारे विश्व से अपने लिये ग्राह्य अंश स्वीकार करता हुआ बढ़ता है. यही श्रद्धा द्वारा मनु का आप्यायन है. गैदिक भाषा में इसे ही यों भी कहा जाता है-अशीतिभिर्महदुक्थमाप्यायते. केन्द्र या मनु 'महदुक्थ' है. उस महदुक्थ की तप्ति या आप्यायन श्रद्धारूपी अशिति से होता है, जो उसे चारों ओर से प्राप्त होती है. इस प्रकार एक ही बात को कई रीति से कहा गया है. महदुक्थ और अशिति, मनु और श्रद्धा इन दोनों की एक साथ अभिव्यक्ति का नाम ही सत्य प्रतिष्ठातत्त्व है. सत्ये सर्व प्रतिष्ठितम् सत्य स्वयंप्रतिष्ठ होता है और सब कुछ सत्य का आधार पाकर प्रतिष्ठित बनता है. सत्य आग्नेय तत्त्व है, और श्रद्धा ऋत या स्नेह्य या आपोमय पारमेष्ठ्य तत्त्व है. सत्यपरायण बुद्धि सौर प्राण या इन्द्रतत्त्व को ग्रहण करती है. सूर्य की संज्ञा ही इन्द्र या रुद्र भी है. वेद की दृष्टि से अग्नि या शिव बड़े हैं, और सोम अग्नि का छोटा सखा सोम है. की आहुति अग्नि में पड़ती है, जिससे अग्नि सौम्य रहता है और अमृतधर्मा बनता है. यही प्रक्रिया मानव में भी निश्चित है. भावुकता सौम्यता का रूप है और निष्ठा आग्नेय प्राणात्मक बुद्धि का धर्म है. श्रद्धा का उद्गम मन में और विश्वास का उद्गम बुद्धि में होता है. विश्वास सौर तत्त्व और श्रद्धा आपोमय है. बुद्धि से भी परे और उससे भी उच्चतर तन्त्र का नाम आत्मा है : यो बुद्धः परतस्तु सः ! PORIN MAHARSHITANYAINALITY m CUMANITLIRAHIMALAMITALIRINMAMALINEKHAIRAM MATIHAR SIDHWACAMANDALVimamAAIIANAMANISHAMARINE MILIAROVAL I NRINIVASAKV l Jain Ede VAISy.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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