SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वासुदेवशरण अग्रवाल पुरुष प्रजापति : २२१ की आवश्यकता थी. यह कौन-सा पय था, किसने उस आदित्य को पुष्ट किया ? ब्राह्मणों की परिभाषा के अनुसार प्राण ही वह पय या दुग्ध है, जिससे आदित्यरूप उस शिशु का संवर्धन होता है. विराट् प्रकृति में सौरप्राणात्मक स्पन्दन या प्राणनक्रिया के द्वारा ही वह विश्वरूप आदित्य जीवनयुक्त है अर्थात् - स्वस्वरूप में स्थित है. वह अपने से पूर्व की कारणपरम्पराओं का पूर्णतम प्रतिनिधि है. इसीलिए उसे सहस्र की प्रतिमा कहा गया है. हमारा जो दृश्यमान सूर्य है, वह उन्हीं महान् आदित्यों की केन्द्र परम्परा में एक विशिष्ट केन्द्र है अथवा उनकी तुलना में यह शिशुमात्र है. इसीलिए वैदिकभाषा में 'द्वप्सश्चस्कन्द'. 2009 कहा जाता है. अर्थात् शक्ति के उस पारावार - हीन महासमुद्र में जो शक्ति का प्रज्वलित केन्द्र उत्पन्न हुआ, वह इस प्रकार था, जैसे बड़े समुद्र से एक जलबिन्दु चू पड़ा हो. वह महासमुद्र जो कि वाष्परूप में था अथवा अव्यक्त था उसी में से यह एक द्रप्स या बिन्दु व्यक्तभाव को प्राप्त हो गया है. यही वैदिक काव्य की भाषा है और विज्ञान की भाषा है. सब प्रकार की सीमाओं से ऊपर, सब प्रकार के गणितीय निर्देशों से परे जो शक्ति तत्त्व है, जहां किसी प्रकार के अंकों का संस्पर्श नहीं होता, जिसके लिये शून्य या पूर्ण ही एकमात्र प्रतीक है, उस अनन्त संजक पूर्ण में से यह प्रत्यक्ष आदित्यरूपी एक बिन्दु प्रकट हुआ है और इसकी संज्ञा भी पूर्ण है. वह अदस् है, यह इदम् है. वह भी पूर्ण है, यह भी पूर्ण है. इस प्रकार की रहस्यमयी भाषा सृष्टि से प्राक्कालीन अचिन्त्य और अव्यक्त तत्त्वों के लिये विज्ञान और वेद दोनों में समानरूप से प्रयुक्त होती है. प्रकृत में हमारा लक्ष्य इसी पर है कि उस अनंत प्रजापति के छन्द से ही पुरुष का निर्माण हुआ है. उस सहस्रात्मा प्रजापति की साक्षात् प्रतिमा पुरुष या मानव है. रस और बल के तारतम्य से पुरुष, अश्व, गौ, अज, अवि ये पाँच मुख्य पशु प्रकृति में प्राणदेवताओं के प्रतिनिधिरूप से चुन लिए गए हैं, यद्यपि समस्त पशुओं की संख्या अनन्तानन्त है. वैदिक परिभाषा के अनुसार जो भूतसृष्टि है, उसी की संज्ञा पशु या प्रजा है. यह भूतसृष्टि तीन प्रकार की है : १. असंज्ञ - जैसे पाषाण आदि. २. अन्तः संज्ञ - जैसे वृक्ष आदि, ३. ससंज्ञ— जैसे पुरुष, पशु आदि. इन तीनों में यह प्रातिस्विक भेद क्यों है ? यह पृथक् विचार का विषय है, संक्षेप में असंज्ञ सृष्टि में केवल अर्धमात्रा की अभिव्यक्ति है. अन्तः संज्ञ सृष्टि में अर्थमात्रा और प्राणमात्रा दोनों की अभिव्यक्ति है, और ससंज्ञ प्राणियों में अर्थ या भूतमात्रा, प्राणमात्रा एवं मनोमात्रा - इन तीनों की अभिव्यक्ति होती है. इन्हें ही भूतात्मा, प्राणात्मा और प्रज्ञानात्मा भी कहते हैं. प्रज्ञानात्मक जो सौर प्राण है, उसे ही इन्द्र कहते हैं. मानव या मनुष्य में इस सौर इन्द्रतत्त्व की सबसे अधिक अभिव्यक्ति है. अन्तः संज्ञ वृक्ष वनस्पतियों में वह प्रज्ञानात्मा इन्द्र मूर्च्छित रहता है. उनमें केवल प्राणात्मा या तेजस आत्मा का विकास होता है. जहाँ तेज या प्राण है, वहीं विकास है. बीज जब पृथ्वी में जल, मिट्टी एवं पृथिवी की उष्णता के सम्पर्क में आता है, तत्क्षण उसमें विकास की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है. अतएव उपनिषदों में कहा गया है कि जो तेजस आत्मा है वह वृक्ष-वनस्पतियों में भी है, किन्तु प्रज्ञानात्मा का विकास केवल मानव में होता है. इस दृष्टि से मानव समस्त विश्व में अपना विशिष्ट स्थान रखता है जिस प्रकार प्रजापति वाक्, प्राण, मन की समष्टि है, वैसे ही मानव भी वाक्, प्राण और मन तीनों की समष्टि का नाम है. अर्थ या स्थूल भूतमात्रा को वैदिक परिभाषा में वाक् कहते है. पंचभूतों में आकाश सबसे सूक्ष्म होने के कारण सबका प्रतीक है और वाक् आकाश का गुण है. अतएव वाक् से उपलक्षित स्थूल भूतमात्रा या अर्थमात्रा का ग्रहण किया जाता है. मानव का शरीर यही भाग है. इसके भीतर क्रिया रूप प्राणात्मा का निवास है और उसके भी अभ्यन्तर में मनोमय प्रज्ञानात्मा का निवास है. मन की ही संज्ञा प्रज्ञान है. इस प्रकार प्रजापति और मानव इन दोनों में रूप प्रतिरूप या बिम्ब प्रतिबिम्बभाव का सम्बन्ध है. पुरुष प्रजापति की सच्ची प्रतिमा है, इसका यह अर्थ भी है कि जिस प्रकार प्रजापति त्रिपुरुष पुरुष है, उसी प्रकार यह मनुष्य भी है. त्रिपुरुषपुरुष का तात्पर्य यह है कि प्रजापति नामक संस्थाका निर्माण अव्यय, अक्षर और क्षर इन तीन तत्त्वों की समष्टि के रूप में होता है. इनमें से अव्यय दोनों का आलम्बन या प्रतिष्ठारूप धरातल है. अक्षर निमित्ति है और क्षर उपादान 0000000 CSreeee For Prato Prsonal 2000003 0000000000 www.jaibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy