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________________ ११० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय अनर्थदण्ड विरमण-व्रत पाँचवें व्रत में सम्पत्ति की मर्यादा की गई और छठे में सम्पत्ति या स्वार्थमूलक प्रवृत्तियों की. सातवें में प्रतिदिन व्यवहार में आनेवाली भोग्यसामग्री पर नियंत्रण किया गया. आठवें में वैयक्तिक हलचल या शारीरिक चेष्टाओं पर अनुशासन है. श्रावक के लिये व्यर्थ की बातें करना, शेखी मारना, निष्प्रयोजन प्रवृत्ति करना वर्जित है. इसी प्रकार उसे अपनी घरेलु वस्तुएं व्यवस्थित रखनी चाहिए. ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे लाभ कुछ भी न हो और दूसरे को कष्ट पहुँचे । अनर्थदण्ड अर्थात् निष्प्रयोजन हिंसा के चार रूप बताये गये हैं : १. अपध्यानाचरित-चिता या क्रूर विचारों के कारण होने वाली हिंसा. धन सम्पत्ति का नाश, पुत्र-स्त्री आदि प्रियजन का वियोग आदि कारणों से मनुष्य को चिन्तायें होती रहती हैं किन्तु उनसे लाभ कुछ भी नहीं वरन् अपनी ही आत्मा निर्बल होती है. इसी प्रकार क्रूर या द्वेषपूर्ण विचार रखने से भी कोई लाभ नहीं होता ऐसे विचारों को अपध्यानाचरित अनर्थदण्ड कहा गया है. २. प्रमादाचरित-आलस्य या असावधानी के कारण होने वाली हिंसा. घी, तेल तथा पानी वाली खाद्य वस्तुओं को विना हुँके रखना तथा अन्य प्रकार की असावधानी इस श्रेणी में आ जाती है. यदि कोई व्यक्ति सड़क पर चलते समय, यात्रा करते समय या अन्य व्यवहार में दूसरे का ध्यान नहीं रखता और ऐसी चेष्टाएं करता है जिससे दूसरे को कष्ट पहुंचे तो यह सब प्रमादाचरित है । ३. हिंस्रप्रदान--दूसरे व्यक्ति को शिकार खेलने आदि के लिये शस्त्रास्त्र देना जिससे व्यर्थ ही हिंसा के प्रति निमित्त बनना पड़े. हिंसात्मक कार्यों के लिये आर्थिक या अन्य प्रकार की सभी सहायता इसमें आ जाती हैं. ४. पापकर्मोपदेश-किसी मनुष्य या पशु को मारने, पीटने या तंग करने के लिये दूसरों को उभारना. बहुधा देखा गया है कि बालक विना किसी द्वेष-बुद्धि के किसी भिखमंगे, या घायल-पशु को तंग करने लगते हैं और पास में खड़े दूसरे मनुष्य तमाशा देखने के लिये उन्हें उकसाते हैं यह सब पापकर्मोपदेश है. इसी प्रकार चोरी, डकैती, वेश्यावृत्ति आदि के लिये दूसरों को प्रेरित करना, व ऐसी सलाह देनी भी इसी के अन्तर्गत है. इस व्रत के पाँच अतिचार निम्नलिखित हैं : १. कदंर्प-कामोत्तेजक चेपायें या बातें करना, २. कौत्कुच्य-भांडों के समान हाथ, पैर पटकाना तथा नाक मुंह आँख आदि से विकृत चेष्टायें करना. ३. मौखर्य-मुख र अर्थात् वाचाल बनना. बढ़-बढ़ कर बातें करना और अपनी शेखी मारना. ४. संयुक्ताधिकरण-हथियारों एवं हिंसक साधनों की आवश्यकता के विना ही जोड़ कर रखना. ५. उपभोगपरिभोगातिरेक-भोग्य सामग्री को आवश्यकता से अधिक बढ़ाना. वैभव प्रदर्शन के लिये मकान, कपड़े, फर्निचर आदि का आवश्यकता से अधिक संग्रह करना आदि इस अतिचार के अन्तर्गत हैं. इससे दूसरों में ईर्ष्या वृत्ति उत्पन्न होती है और अपना जीवन उन्हीं की व्यवस्था में उलझ जाता है. सामायिक-व्रत छठे, सातवें और आठवें व्रत में व्यक्ति की बाह्य चेष्टाओं पर नियंत्रण बताया गया. नवें से लेकर बारवें तक चार व्रत आन्तरिक अनुशासन या शुद्धि के लिये हैं. इनका अनुष्ठान साधना के रूप में अल्प समय के लिये किया जाता है. जिस प्रकार वैदिक परम्परा में संध्या-वंदन तथा मुसलमानों में नमाज दैनिक कृत्य के रूप में विहित हैं, उसी प्रकार जैन-परम्परा में सामायिक और प्रतिक्रमण हैं. सामायिक का अर्थ है जीवन में समता को उतारने का अभ्यास. साधु का सारा जीवन सामायिक रूप होता है अर्थात् उसका प्रत्येक कार्य समता का अनुष्ठान है. श्रावक प्रतिदिन कुछ समय के C www.atelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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