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________________ साध्वी निर्मलाश्री : जैनमतानुसार अभाव प्रमेयमीमांसा : ४६५ जात्यन्तर है. वह स्वद्रव्य, क्षेत्र काल और भाव रूप से सत् है और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से असत् है. अतः विरोध के लिये कोई स्थान नहीं है. वस्तुस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिये भाव पदार्थ से अत्यन्त भिन्न अन्योन्याभाव नामक स्वतंत्र पदार्थ मानने से ही काम चल सकता है, अतः वस्तु को भावाभावात्मक मानने की आवश्यकता नहीं है - यह शंका भी उचित नहीं, क्योंकि यदि वस्तु को पर रूप से अभावात्मक नहीं माना जाय, तो पट आदि के अभाव को घट नहीं कह सकने के - कारण घट को पटरूप मानना पड़ेगा. जैसे घटाभाव से भिन्न होने के कारण घट को घट कह सकते हैं, वैसे ही पट को भी घटाभाव से भिन्न होने के कारण घट मानना चाहिए. 9 तात्पर्य यह है कि न्याय-वैशेषिक के अनुसार अन्योन्याभाव को दो पदार्थों की स्वतंत्र स्थिति में कारण माना जाता है, और यह भेद स्वयं एक स्वतंत्र पदार्थ है. उसके अनुसार जहां घट का अभाव नहीं रहता वहां घट का निश्चय होता है. पर यह मान्यता ठीक नहीं है. न्याय-वैशेषिक के अनुसार पट आदि घट के अभावरूप नहीं हैं, इसलिए पट आदि के घट के अभाव से भिन्न होने पर पटादि में भी घट का ज्ञान होना चाहिए. जैन सिद्धान्तानुसार घट को घट के अतिरिक्त सभी पदार्थों का अभावरूप स्वीकार गया है. अतः घटपटादि के भी अभाव स्वरूप होने से घट में पट का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए स्व-पररूप से सदसदात्मक सब पदार्थों को स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा प्रतिनियत रूप व्यवस्था की अनुपपत्ति होगी. न्यायमुदचन्द्र में आचार्य प्रभाचन्द्र ने कहा है रामका सर्वे भावाः प्रतिप प्रतिनियत रूपव्यवस्थान्ययानुपपत्तेः' यदि कहा जाय कि प्रतिनियतरूप व्यवस्था की अनुपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि पूर्वकथित इतरेतराभाव से उसकी व्यवस्था हो जायगी तो यहां प्रश्न उठता है कि यह इतरेतराभाव स्वतन्त्र है कि भाव का धर्म है ? इतरेतराभाव स्वतंत्र नहीं हो सकता, क्योंकि अपने स्वातंत्र्य के लिये वह दूसरे इतरेतराभाव की अपेक्षा रखेगा और दूसरा तीसरे की, तीसरा चौथे की इत्यादि, और इस प्रकार अनवस्था होने के कारण इतरेतराभाव का स्वतंत्र अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकेगा. तब क्या वह भाव का धर्म है ? इतरेतराभावको भावपदार्थ का धर्म स्वीकार करने पर प्रश्न होगा - किस भाव का धर्म है ? घट का, भूतल का या उभय का ?- -यदि इतरेतराभाव को घट रूप भावपदार्थ का धर्म माना जाय तो भी प्रश्न उठता है कि वह घटस्वरूप का निषेधक है या नहीं ? यदि उसे निषेधक माना जाय तो फिर प्रश्न होगा कि घट में ही घटस्वरूप का वह निषेधक है या भूतल में घटस्वरूप का ? इतरेतराभाव को घट में घटस्वरूप का निषेधक मानना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर घट की सत्ता ही असिद्ध हो जायगी और उस परिस्थिति में वह इतरेतराभाव किस भाव पदार्थ का धर्म होगा ? और "भूतले घटो नास्ति" यह प्रतीति भी कैसे होगी ? क्योंकि घट में ही उस प्रतीति का प्रसंग होगा. यदि आप इतरेतराभाव को भूतल में घटस्वरूप का निषेधक मानेंगे तो यह जैन मत स्वीकार करना होगा, कारण जैन दर्शन के अनुसार घटाभाव घटधर्म होता हुआ ही भूतल में घटस्वरूप का निषेधक होता है. यदि इतरेतराभाव को घटस्वरूप का अनिषेधक माना जाय तो भूतल में भी घटस्वरूप का प्रसंग होने से अभाव - कल्पना व्यर्थ हो जायगी. भूतल का धर्म भी उसे नहीं मान सकते क्योंकि 'घटोsस्ति' इत्याकारक अस्तिता प्रतीति के विषयभूत 'अस्तिता' की तरह समान 'घटो नास्ति' इत्याकारक 'नास्तिता' प्रतीति का विषयभूत नास्तिता धर्म भी घट का ही धर्म है. यदि नास्तित्व आधार ( भूतलका) धर्म होकर भी आधेय (घटादि ) के साथ समानाधिकरण हो सकता है तब तो, अस्तित्व को भी आधार का धर्म मान लेने में कोई विरोध नहीं होना चाहिए. और फलस्वरूप अस्तित्व तथा नास्तित्व इन दोनों धर्मों से शून्य होने के कारण घटपटादि द्रव्य खपुष्पवत् असत् हो जायेंगे. इसी प्रकार 'नास्तित्व' आधार तथा आधेय- इन दोनों का धर्म भी नहीं हो सकता है क्योंकि तब तो उपरोक्त युक्ति द्वारा अस्तित्व को भी उभय धर्म मानना पड़ेगा. १. प्रथम भाग, पृ० ३६७. Jain Education Interna Cutter// Judwane & Personal use www.ainbray.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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