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________________ २४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय WIKINNINNEMINAR MINMENENEMM उन्होंने अपने साथी मुनियों से कहा : “मैं वीतराग-पथ का राहगीर हूँ. समभाव साधना करने के लिए ही मैंने वीतरागपथ अनुसरा है. मुझे ही निमित्त बना कर ये लोग विषम भाव के बीजारोपण करें यह मेरी साधना का ध्वज नहीं, कलंक है.' अस्तु, उक्त परम्परा स्वामीजी म० की दृढ़ता से कायम न हो सकी. उनके जीवन में इस प्रकार की अनेक बार पारस्परिक द्वेष की स्थिति उत्पन्न हुई परन्तु उन्होंने सब प्रसंगों पर अपनी विलक्षण बुद्धि द्वारा गलत परंपरा स्थापित न होने दी. घटना, वि०सं० १९६३, व्यावर. दो: चरितनायक महामनस्वी स्वामीजी म. के वक्ष में एक बड़ी गांठ थी. एक दिन निश्चय हुआ : 'डाक्टर कुंजबिहारीलाल से निदान कराया जाय' वे अपने सहयोगी मुनि को लेकर निदान निमित्त चले गये. डॉक्टर की राय हुई : 'ऑपरेशन करना होगा.' स्वामीजी ने मन-मन में सोचा : 'जीना है संयम के लिये. संयम और तप की साधना में यह व्याधि, विघ्न उपस्थित करेगी. तब क्यों न डॉक्टर की इच्छा पर ही छोड़ दूं. सब कुछ ? स्वामीजी ने कहा : 'मैं तैयार हूँ, आप अपनी सुविधानुसार ऑपरेशन कर सकते हो.' 'डॉक्टर ने पूछा :' क्लोरोफार्म का उपयोग किया जाय या इंजेक्शन का?" एक का भी नहीं. मैं सब तरह से तैयार हूँ, आप अपनी सुविधानुसार ऑपरेशन कर सकते हैं.' स्वामीजी का यह संक्षिप्तसा उत्तर था. 'साहस, संकल्प और विश्वास का ऐसा विकट धनी पुरुष आज तक मैंने नहीं देखा-कह कर डाक्टर आश्चर्यचकित हो गये. उन्होंने अपना काम प्रारम्भ किया. ४५ मिनिट में छाती के एक भाग से ६ तोले की गांठ निकाल कर मेज पर रख दी. स्वामीजी से कहा गया : 'तीन दिन तक यहीं पर रहना होगा. ऑपरेशन काफी डेंजरस था.' भद्र सन्त का उत्तर था : “मैं सकुशल अपने निवास पर पहुँच जाऊँगा." और उसी समय पूरे चार फागका रास्ता पार करके जैन स्थानक (पीपलिया बाजार) में सानन्द पधार गये. घटना : सं० २००७, ब्यावर. तीन : जैनधर्म के सभी सम्प्रदाय आध्यात्मिक पवों में संवत्सरी पर्व को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पवित्र आध्यात्मिक त्यौहार मानते हैं. इस दिन सभी सम्प्रदायों के जैन बंधु तपस्यापूर्वक अपने गत वर्ष के जीवन में लगे दोषों का प्रायश्चित्त करते हैं. छोटे-छोटे बालक भी अपनी रसना पर नियंत्रण कर यथाशक्ति अवश्य तप करते हैं. ब्यावर के स्थानकवासी संघ में और जैन-नवयुवक संघ में किसी मामले को लेकर संवत्सरी के दिन चर्चा चली। चर्चा-मंच तेज होता गया. बात यहाँ तक आगे बढ़ी कि व्यक्ति दो दलों में बँट गए. मुनिश्री अपने दोनों शिष्य स्वरूप गुरु-भाइयों सहित न्यात के नोहरे (सामूहिक अर्थराशि से निर्मित सार्वजनिक स्थान) में प्रवचन-मंच पर स्थित थे. संघर्ष बढ़ने की पूरी-पूरी संभावना तीव्र हो चली थी. स्वामीजी म. ने निष्पक्ष दृष्टि से सोचा और अपना अद्भुत निर्णय किया. अपने शिष्यों से कहा : 'व्याख्यानमंच से उठकर तत्काल हमें अपने निवास (जैन स्थानक) पर पहुँच जाना चाहिए.' स्वामीजी का आदेश हुआ. तीनों मुनि संवत्सरी का प्रवचन छोड़कर चले आये. स्थिति के अनुसार संघर्ष बढ़ता किन्तु मुनिश्री के प्रस्थान करते ही स्कूल की छुट्टी होने पर बच्चे विभिन्न दिशाओं में बिखर जाते हैं ऐसे ही दो दलों में विभाजित जैनबन्धु भी तितर-बितर हो गए. संघर्ष का शमन हो गया. घटना : सं० २०१६, ब्यावर. Jain Education International Private & Personal use on Dipinolibodhy.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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