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________________ जयभगवान जैन : वेदोत्तरकाल में ब्रह्मविद्या की पुनर्जागृति : ४१३ 0-0--0--0-0--0--0-0-0--0 ओर झुकी और आत्मविद्या क्षत्रियों की सीमा से निकल कर ब्राह्मणों में फैलनी शुरू हुई. इस दिशा में ब्राह्मण ऋषियों का श्रेय इस बात में है कि उन्होंने सबसे पहले भारत के आध्यात्मिक दर्शन और उनके पौराणिक आख्यानों को उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, भिक्षुमूत्र, योगदर्शन व पुराणों की शकल में संकलित व लिपिबद्ध करने का परिश्रम किया. यदि इन के द्वारा संकलित की हुई अध्यात्मचर्चाएं आज हमारे पास न होती तो बुद्ध और महावीर काल से पहले की आध्यात्मिक संस्कृति का साहित्यिक प्रमाण ढूंढना हमारे लिये असम्भव था. जैन परम्परागत जो लिखित साहित्य आज उपलब्ध है उसका आरम्भ महावीरनिर्वाण के ५०० वर्ष बाद ईसा पूर्व की पहली सदी में उस समय हुआ जब जैन आचार्यों को यह अच्छी तरह विदित हो गया कि अध्यात्मतत्त्व बोध दिनों दिन घटता जा रहा है और यदि इसे लिपिबद्ध न किया गया तो रहा सहा बोध भी लुप्त हो जायगा,' अध्यात्मविद्या सभी लोगों में रहस्य विद्या बनकर रही है :–भारत के सभी धर्मशास्त्रों में जगह-जगह अधिकारी और अनधिकारी श्रोताओं के लक्षण देते हुए बतलाया गया है कि अध्यात्मविद्या का बखान उन्हीं को किया जाय जो जितेन्द्रिय और प्रशान्त हों, हंस के समान शुद्ध वृत्ति वाले हों, जो दोषों को टालकर केवल गुणों को ग्रहण करने वाले हों.२ अध्यात्मविद्या को इस प्रकार अनधिकारी लोगों से सुरक्षित रखने का विधान केवल भारत के सन्तों तक ही सीमित नहीं रहा है. भारत के अलावा जिन अन्य देशों में आध्यात्मिक तत्त्वों का प्रसार हुआ है, वहाँ के आध्यात्मिक सन्तों ने भी इस विद्या को अनधिकारी लोगों से बचा रखने का भरसक यत्न किया है। आज से लगभग २००० वर्ष पूर्व जब पश्चमी एशिया के यहूदी लोगों में प्रभु ईसा ने आध्यात्मिक तत्त्वों की विवेचना शुरू की तो बहुत विवेक और सावधानी से (parablas) रूपकों द्वारा ही की थी. इस लिये कि कहीं वे अपनी नासमझी से इन तत्त्वों को बिगाड़कर कुछ का कुछ अर्थ न लगा बैठें और फिर विरोध पर उतारू हो जायें. इसीलिए प्रभु ईसा ने इस बात को कई स्थलों पर दोहराया है जो बहुमूल्य और पवित्र तत्त्व हैं उन्हें श्वान और वराहवृत्ति वाले लोगों के सामने न रखा जाय, कहीं वे उन्हें पावों से रौंद कर तुम्हें ही आघात पहुँचाने को उद्यत न हो जाएँ.४ MA १. षट्खएडागम भाग १-डा० हीरालाल द्वारा लिखित प्रस्तावना. २. (अ) महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २४६. (आ) पटखएडागम, धवला टीका, जिल्द १ गाथा ६२-६३. ३. (A) But without a parable spake he not unto them and when they were alone, he expoun ____ded all things to his desciples. Bible-Mark IX 34. (B) I will open my mouth in parbles. I will utter things which have been kept secret from the foundations of the world. Bible-Matthew XIII 35 ४. (A) It is not meet to take the children's bread and to cast it unto thedogs. Bible. Mark VII. 27 (B) Give not that which is holy unto the dogs, neither cast your pearls before swine. Lest they trample them under their feet and turn again and rend you. Bible Matthew VII 6. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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